पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५९५

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. i अध्याय ४ ब्राह्मणं ५ १ भावार्थ। उस पर मैत्रेयी बोली कि जब धन करके मुक्त नहीं हो सकती हूं तो उस धन को मैं क्या करूंगी, हे प्रभों ! जिस' वस्तु को आप भली प्रकार जानते हैं उसी को मेरे लिये उपदेश करें ॥ ४ ॥ मन्त्रः,५ स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया वै. खलु नो भवती. सती प्रियमधद्धन्त तर्हि भवत्येतद्व्याख्यास्यामि ते व्याचताणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ॥ पदच्छेदः। सः, ह, उवांच, याज्ञवल्क्यः, प्रिया, वै, 'खलु, नः, भवती, सती, प्रिंयम् , अवृधत् , हन्त, तर्हि, भवति, एतत्, व्याख्या- स्यामि, ते, व्याचक्षाणस्य, तु, मे, निदिध्यासस्वं, इति ।। अन्वय-पदार्थ। ह-तव । याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्यः । उवाच वैम्बोले कि भवती-तू । नारी बड़ी । प्रिया प्यारी । सती होकर प्रियम्-प्रिय कोही । अवृधत्-चाहती है। हन्त तर्हि अच्छा तो.। भवति हे मैत्रेयि ! । ते तुम्हारे लिये । एतत् इस मोक्ष को व्याख्यास्यामि मैं कहूंगा: तुम्लेकिन ।व्याचक्षाणस्य : बयान करते हुये । मेमेरे । निदिध्यासस्व इति-बातों के मतलब पर ध्यान रक्खो। भावार्थ । यह सुनकर याज्ञवल्क्य महाराज बोले कि, हे मैत्रेयि ! तू पहिले भी मुझको अतिप्रिय थी और अब ..भी तू अतिप्यारी.