पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६०

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४४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० अभवत्-हो गई । सः वही । अयम यह । अग्नि:-अग्नि । मृत्युम्-मृत्यु को। अतिक्रान्त: उन्लंघन करके । परंग-मृत्यु से परे । दीप्यते-दीप्तिमान् हो रही है। भावार्थ । हे प्रियदर्शन ! प्राणदेव पापरूप मृत्यु को अतिक्रमण करके सब देवताओं में श्रेष्ट वाणीदेव को मृत्यु से बहुत दूर ले गया, और जब वह वाणी मृत्यु को अतिक्रमण करके पाप से मुक्त हो गई, तब वह वाणी अग्नि हो गई, वही यह अग्नि मृत्यु को उल्लंघन करके मृत्यु से परे दीप्तिमान् हो रही है ॥ १२॥ मन्त्रः १३ अथ ह प्राणमत्यवहत्स यदा मृत्युमत्यमुच्यत स वायुरभवत्सोऽयं वायुः परेण मृत्युमतिक्रान्तः पचने ।। पदच्छेदः। अथ, ह, प्राणम् , अति, अवहत् , सः, यदा, मृत्युम् , अति, अमुच्यत, सः, वायुः, अभवत्, सः, अयम् , वायुः, परेण, मृत्युम् , अतिक्रान्तः, पवते ।। अन्वय-पदार्थ। अथ इसके पीछे । ह-निश्चय करके । + प्राण प्राणदेव । प्राणम्-घ्राणदेव को । + मृत्युम्=पापरूप मृत्यु से ! अति अचहत्-दूर ले गया। यदा-जय । प्राणच घ्राणदेव । मृत्युम् मृत्यु से । अति अमुच्यत छूट गया। + तदा तय । साम्वही। वायुःवायवायु । अभवत् होता भया । स:- वही । अयम्-यह । वायुः वायु । मृत्युम्न्मृत्यु के । परे परे । अतिक्रान्तः -पाप से मुक्त होता हुआ । पवतेन्बहता है। . ।