पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६१२

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1 बृहदारण्यकोपनि पद् स० कृत्स्ना पूर्ण है । एवम् एव इसी प्रकार । अरे हे मत्रेयि अयम्=यह । आत्मा=यारमा । अनन्तर:-ग्रन्दर । प्रवाहा बाहर से । इति वा निश्चय करके । प्रशाननः ज्ञानस्वरूप है। + सा=यही धारमा । एतेभ्यः-इन । एव-ही। भूतेभ्यः- पञ्चमहाभूतों से । समुत्थाय-निकल कर । तानिन्छन । एव= ही के । अनु-सभ्यन्तर । विनश्यति लीन रहता है। अरे है मैत्रेयि ! । ब्रवीमि मैं सत्य कहता हू । प्रेत्य-देह छोड़ने के पोछे । अस्य-इस प्रात्मा की । संशा-विशेष मंत्रा। न-नहीं। अस्ति रहती है । इति-ऐसा । यानवल्क्यः उवाच - 'याज्ञवल्क्य ने कहा । भावार्थ। हे मैत्रेयि ! जैसे सैन्धव नोन का डला भीतर बाहर रस करके पूर्ण है, उसी प्रकार यह जीवात्मा बाहर भीतर से सत् चित् आनन्द करके पूर्ण है, या अात्मा इन्हीं पञ्च- तत्त्वों में से प्रकट होकर इन्हीं के अभ्यन्तर लय हो जाता है, हे मैत्रेयि ! मैं सत्य कहता हूं देह त्याग के पीछे इस आत्मा की विशेष संज्ञा कुछ नहीं रहती ॥ १३ ॥ मन्त्रः १४ - सा होवाच मैत्रेय्यत्रैव मा भगवान्मोहान्तमापीपिपन्न वा अहमिमं विजानामीति स होवाच न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यविनाशी वा अरेऽयमात्मानुच्छित्तिधर्मा । पदच्छेदः। सा, ह, उवाच, मैत्रेयि, अत्र, एव, मा, भगवान्, मोहान्तम्, आपीपिपत्, न, वा, अहम्, इमम्, विजानामि, इति, सः,