पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६२६

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वेद । D ६१२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० सर्वम् , तत् , एतत् , त्र्यक्षरम् , हृदयम् , इति, ह, इंति, एकम् , अक्षरम् , अभिहरन्ति, अस्मै, स्वाः, च, अन्ये, च, यः, एवम् , वेद, द, इति, एकम् , अक्षरम् , ददति, अस्मै, स्वाः, च, अन्ये, च, यः, एवम् , वेद, यम्, इति, एकम् , अक्षरम् , एति, स्वर्गम् , लोकम् , यः, एवम् , अन्वय-पदार्थ । यत्-जो। हृदयम् हृदय है । एप:-यही । प्रजापतिः प्रजापति है । एतत्यही । ब्रह्म ब्रह्म है । एतत्-ग्रही । सर्वम्-सब कुछ है । तत्-सोई । व्यक्षरम्न्तीन अक्षरवाला। एतत्-यह । हृदयम् हृदय ब्रह्म । + उपास्यम्सेवनीय है। या जो । एवम्-इस प्रकार । ह इति एवं अक्षरम्ह' ऐसे एक अक्षर को । वेद-जानता है। अस्मै-उस पुरुप के लिये । स्वाइन्द्रिय । च-और । अन्ये=शब्दादि विपय । अभिहरन्ति एवम् अपने अपने कार्य को करते हैं यानी इन्द्रियां विषय ग्रहण करती हैं और विषय अपने को अर्पण करते हैं इसी प्रकार । च- और । द इति-द ऐसे । एकम्-एक । अक्षरम् अक्षर को। याजो। वेद-मानता है । अस्मै-उस पुरुप के लिये। स्वा: अपने ज्ञाति । चन्चौर । अन्ये गैर ज्ञाति के लोग । ददति सेवा सत्कार करते हैं । च-और । एवम्-इसी प्रकार । यम्य । इति-ऐसे । एकम्-एक । अक्षरम्-प्रक्षरको । यःमो । वेद- जानता है । सा-वह पुरुष । स्वर्गम्-स्वर्ग । लोकम्-लोक को एति-प्राप्त होता है। भावार्थ । हे शिष्य ! हृदय प्रजापति है, और कोई अन्य पुरुष प्रजापति नहीं है, यही हृदय महान् अनन्त ब्रह्म है, कुछ जो