पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६४५

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अध्याय ५ ब्राह्मण ११ ६३१ . छिद्र के । यथा-समान । विजिहीते-मार्ग देता है। + पुनः फिर । तेन-उस छिद्र के द्वारा । सावह पुरुप । ऊर्ध्वम्-ऊपर की। आक्रमते-जाता है । + च-ौर । अशोकम्-शोकरहित । अहिमम्-मानसिक दुःखरहित । लोकम् ब्रह्मा के लोक को। श्रागच्छति प्राप्त होता है । तस्मिन् वहां । शाश्वतीः निरंतर । समा:वर्षों तक । वसति-वास करता है। भावार्थ । जब पुरुप इस लोक से मर कर चला जाता है, तब वह प्रथम वायुलोक में जाता है, वहां पर वायु उस पुरुप को उस अंवस्था में पहिये के छिद्र के समान मार्ग देता है, उस छिद्र के द्वारा वह पुरुष ऊपर को जाता है, और सूर्यलोक में पहुँ- चता है, वहां पर उस पुरुष के लिये बाजे के छिद्र की तरह मार्ग देता है, उस मार्ग के द्वारा फिर ऊपर को जाता है, और चन्द्रलोक में पहुँचता है, वहां पर उस पुरुप को चन्द्रमा डमरू बाजे के छिद्र के समान मार्ग देता है, और फिर उस मार्ग द्वारा वह पुरुप ऊपर को जाता है, और अन्त में शोक- रहित, मानसिक दुःखरहित प्रजापति के लोक को प्राप्त होता हैं, वहां पर बरसों तक निरन्तर वास करता है ॥ १॥ इति दशमं ब्राह्मणम् ॥ १० ॥ , . अथ एकादशं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ एतद्दे परमं तपो ययाहितस्तप्यते परम हैव लोकं जयति य एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरण्यछ हरन्ति