पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६५१

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अध्याय ५ ब्राह्मण १२ सर्वाणि-सब जीव । ह वा-निश्चय करके । विशन्ति प्रवेश करते हैं। + च-ौर। अस्मिन्-इसी में। सर्वाणि-सव । भूतानि-प्राणी । रमन्ते-रमण करते हैं यानी वह ब्रह्मरूप हो जाता है। भावार्थ। प्रातृद ऋषि अपने पिता से कहता है कि कोई आचार्य कहते हैं कि अन्न ही ब्रह्म है, यानी ब्रह्म की तरह यह भी पूज्य ६. है, सो ऐसा नहीं है, क्योंकि प्राण के बिना अन्न सड़ जाता है, और उसमें दुर्गन्ध श्वाने लगती है, ब्रह्म न सड़ता है और न उसमें दुर्गन्ध आती है। कोई आचार्य कहते हैं कि प्राण ही ब्रह्म है, सो भी ठीक नहीं कहते हैं, क्योंकि अन्न के बिना प्राण सूख जाता है, ब्रह्म सूखता नहीं है, इस लिये न केवल अन्न ब्रह्म करके मन्तव्य है, न केवल प्राण ब्रह्म करके मन्तव्य है, पर जब ये दोनों एकता को प्राप्त होते हैं तब दोनों मिल कर ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं, जो कोई अन्न और प्राण को इस प्रकार जानता है उस विद्वान् के लिये न कोई सत्कार है, न कोई असत्कार है, क्योंकि ऐसे पुरुप नित्यतृप्त और कृतकृत्य होते हैं, पुत्र के इस सिद्धान्त को जान कर हाथ से निपेध करता हुआ पिता कहने लगा कि हे पुत्र, प्रातृद ! तुम ऐसा मत कहो, कौन पुरुष अन्न और प्राण को एक मानकर महत्त्व को प्राप्त होता है, यानी कोई नहीं प्राप्त होता है, फिर पुत्र से पिता ने कहा कि हे ! निश्चय करके अन्न ही "वि" है, क्योंकि "वि" का अर्थ वेश यानी प्रवेश है, इस लिये "वि" अन्न को कहते हैं कारण इसका यह है कि अन्न में ही सब प्राणी प्रविष्ट