पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६८७

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अध्याय ६ ब्राह्मण १ ६७३ + श्रुत्वा-सत्तर सुनकर । वाणी-वाणी । ह=भी । प्रविवेश- शरीर में प्रवेश करती भई । भावार्थ। तिसके पश्चात् वाणी शरीर से निकली, और एक वर्ष- तक बाहर रहकर फिर वापस आई, और अपने साथी इन्द्रियों से बोली कि तुम बगैर मेरे कैसे जीते रहे, इस पर सब इन्द्रियों ने उस वाणी से कहा कि जैसे गूंगे पुरुष वाणी से न बोलते हुये, नेत्र से देखते हुये, कान से सुनते हुये, मन से जानते हुये, वीर्य से संतान उत्पन्न करते हुये, प्राण करके जीते हैं वेसेही हमलोग विना तेरे प्राण करके जीते रहे, ऐसा सुनकर वाणी हार मानकर शरीर में फिर प्रवेश करती भई ॥ ८ ॥ मन्त्रः ६ चक्षुर्चीचक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथम- शकत महते जीवितुमिति ते होचुर्यथान्धा अपश्यन्तश्च- क्षुपा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वाछसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह चक्षुः॥ पदच्छेदः। चक्षुः, ह, उच्चक्राम, तत्, संवत्सरम् , प्रोष्य, आगत्य, उवाच, कथम् , अशकत, मत्, ऋते, जीवितुम्, इति, ते, ह, ऊचुः, यथा, अन्धाः, अपश्यन्तः, चक्षुषा, प्राणन्तः, वदन्तः, वाचा, शृण्वन्तः, श्रोत्रण, विद्वांसः, मनसा, प्रजाय- मानाः, रेतसा, एवम्, अजीविष्म, इति, प्रविवेश, ह, चक्षुः ।। प्राणेन,