पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६९८

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वृहदारण्यकोपनिपद् स० मन्ति-जल से श्राधमन करते हैं । तत्-ऐसा करने में। विद्वांसः विद्वान् लोग । मन्यन्ते-समझने है कि I + वयम्- हम लोग । एतम्-इस । अनम्-मागा को । श्रनग्नम-धम सहित । कुर्वन्त: करते हुए । मन्यामह-समझने । भावार्थ । हे सौम्य 1 तिसके पीछे वाणी बोली कि, प्रागा : यद्यपि मैं औरों से श्रेष्ठ हूं परन्तु आप मेरे भी श्रायतन है, फिर नेत्र बोला कि यद्यपि मैं औरों के लिये प्रतिष्टा हूं परन्तु हे प्राण ! तू मेरी भी प्रतिष्ठा है तीही कृपा करके प्रतिष्ठा- संपन्न हूं, इसके पीछे मन बोला कि हे प्राण ! यद्यपि में औरों के लिये आयतन हूं परन्तु तूही मेरा पायतन है. करणं ने भी ऐसाही कहा यद्यपि में औरों के लिये संपत्तिरूप हूं यानी और पुरुषों को वेदग्रहण करने की शक्ति देनेवाला हूं, पर है प्राण ! तू स्वतः वेदग्रहण शक्तिवाला है, मन ने कहा प्रागा ! यद्यपि मैं सबको आश्रय देता हूं पर तु मेग भी श्राश्रय है, ऐसेही वीर्य ने कहा यद्यपि मैं प्रजनन शक्तिवालाई पर तु है प्राण ! मेरा भी उत्पादक है, इस प्रकार सब इन्द्रियों की विनतियां सुनकर प्राण ने कहा हे इन्द्रियगण ! बताश्री मेरा अन्न और वस्त्र क्या होगा ? तब इन्द्रियों ने उत्तर दिया कि हे प्राण ! हे स्थामिन् ! कुत्तों से, कृमियों से, कीट-पतंगों से लेकर जो कुछ इस पृथ्वी पर प्राणीमात्र हैं उनका जो भोग है वहीं भोग तुम्हारा भी होगा, और जल तुम्हारा वस होगा। जो उपासक इस प्रकार प्राण की महिमा को जानता है वह कभी अन्न से शून्य नहीं होता है, और न प्रतिग्रह का कोई दोष उसको लगता है ऐसे जानते हुये श्रोत्रियगण भोजन