पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७२९

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अध्याय ६ ब्राह्मण ३ ७१५ यावन्तः जितने । देवाः क्रूर देवता । त्वयि-तेरे विपे। + स्थिता स्थित हैं । + च-और । पुरुषस्य-पुरुष के । कामान् मनोरथों में । तिर्यश्च विघ्नरूप होकर । प्रन्ति प्रतिवन्धित होते हैं। तेभ्यःउनके लिये। अहम्-मैं । भाग- धेयम्-धी का भाग । जुहोमि-देता हूँ। तेन्वे । तृप्ता-तृप्त होते हुये । मा-मुझको । सवैः सब । कामैः कामनाओं से । तपंयन्तु स्वाहा-तृप्त करें ऐसा कहकर स्वाहा शब्द का उच्चारण करे। +च-और । याओ । तिरश्ची-कुटिलगतिवाली । + देवी देवी 1+ त्वयि तेरे विपे । निपद्यते स्थित है । + च- और । इति-इस तरह । या-मो।+ स्मरति ख्याल करती है कि । अहम् =मैं ही। विधरणी-सब को निग्रह करने वाली हूं। ताम्-ऐसी । त्वा-तुझ । संराधनीम्-सिद्ध करनेवाली को। अहम् मैं । धृतस्य-घी की । धारया-धारा करके । यजे पूजन करता है। स्वाहा यह मन्त्र पढ़कर स्वाहा शब्द का उच्चारण करे। भावार्थ । हे सौम्य ! अब कर्मकाण्ड का वर्णन किया जाता है-जो कोई उपासक ऐसी इच्छा करे कि मैं संसार में बड़ी पदवी को प्राप्त होऊं तो उसको चाहिये कि यज्ञ से पहिले बारह दिनतक उपसद्बत का करनेवाला हो; फिर गूलर के पात्र में अथवा गूलर की लकड़ी बने हुये चमस सदृश बर्तन में, ऋतु में उत्पन्न हुई सब ओषधियों को और फलों को इकट्ठा करके रक्खे, और भूमि को मार पोंछ कर और लीप पात कर उसमें अग्नि को स्थापन कर वहीं कुशा बिछा कर ढके हुये धी का संस्कार करके जिस समय पुरुषनामक नक्षत्र उदय हुआ हो, सब ओषधियों से भरी हुई मन्थ को अग्नि के सामने