पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७३७

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अध्याय ६ ब्राह्मण ३ ७२३ - प्रशंसा ऋत्विज्ञादि यज्ञ विपे सुनाते हैं सोई । + त्वम् असि-तू ही है। पाने हे मन्थ ! मेघों के भीतर । संदीप्तम् अकाशरूप । + त्वम् असि-तू ही है । विभु: हे मन्थ ! विभुरूप । + त्वम् असिन्तू ही है । प्रभुः हे मन्थ! सर्वशक्तिमान् । + त्वम् असि% तू ही है । अन्नम्है मन्थ ! अन्न । + त्वम् असि-तू ही है । ज्योतिः हे मन्थ ! ज्योतिरूप । + त्वम् असि-तू हा है । निध- नम्-हे मन्थ ! लयस्थान । + त्वम् अलि-तू ही है । संवर्ग: है मन्ध ! संहारकर्ता । + त्वम् असि इति-तू ही है । भावार्थ। हे सौम्य ! इसके उपरान्त अध्वर्यु मन्थ को स्पर्श करे आर कहे कि हे मन्थ ! तू जगत् का भ्रामक है, तू ही हे मन्थ ! ब्रह्माण्ड का प्रकाश करनेवाला है, तू ही हे मन्थ ! इस ब्रह्माण्ड में व्यापक है, हे मन्थ ! तू ही आकाशवत् निष्कम्प है, हे मन्ध ! तू ही जगत्पी सभा का सभापति है, हे मन्ध ! तू ही यज्ञ बिषे हिंकार है, हे मन्थ ! तू ही . यज्ञ में हिंकार का विषय भी है, हे मन्य ! ॐकाररूप तू ही है, हे मन्थ ! यज्ञ विषे तू ही प्रशंसा किया गया है, हे मन्य! जिसको प्रशंसा यज्ञ विषे ऋत्विजादि सुनाते हैं सो तू ही है, हे मन्य ! मेघों के अभ्यन्तर प्रकाशरूप तू ही है, हे मन्थ ! विभुरूप तू ही है, हे मन्थ ! तू ही सर्वशक्तिमान् है, हे मन्थ ! अन्नरूप तू ही है, हे मन्थ ! ज्योतिरूप तू ही है, हे मन्थ.! लयस्थान तूं ही है, हे मन्थ ! संहारकर्ता तू ही है ॥ ४ ॥ मन्त्रः ५ अथैनमुद्यच्छत्यामछस्यामळ हि ते महि स हि ! .