पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७४०

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. १ . ७२६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० पाणी, प्रक्षाल्य, जघनेन, अग्निम् , प्राक्शिराः, संविशति, प्रातः, आदित्यम् , . उपतिष्ठते, दिशाम् , एकपुण्डरीकम्, असि, अहम् , मनुष्याणाम् , एकपुण्डरीकम् , भूयासम्, इति, यषेतम्, एत्य, जघनेन, अग्निम् , आसीनः, वंशम् , जपति ॥ अन्चय-प्रदार्थ । अथ-तिसके उपरान्त । एनम्-इस मन्ध को। आचामतिः खावे ।तस्य-तिस मन्ध भतण का ।+प्रकार:-प्रकार । + इत्थम् ऐसा है । तत् सवितुःवरेण्यम् । मधु वाताऋता- यते मधु क्षरन्ति सिन्धयः माध्चीनः सन्त्वोषधीः भूः स्वाहा हे ईश्वर ! आपकी अनुग्रह से वायुगण मधु की तरह सुखकारी होते हुये मेरी तरफ बहते रहें, नदियां मधुर रस से पूर्ण होकर हमारी तरफ चलती रहें, हम जीवों के कल्याण के लिये जब धान प्रादि श्रोपधियां मधुर होती रहे, हे परमात्मन् ! इस प्रकार भूर्लोक के अपर कृपा करते रहो । + एनम् इस व्याहृति को। + उक्त्वा-पढ़कर । + प्रथमम् -पहिला । + ग्रासम्न्यास । आचामति खाता है । + पुनः फिर । भर्गः देवस्य धीमहि । मधुनलमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजःमधुधौरस्तु नः पिता भुवः स्वाहा हे परमात्मन् ! रात्रि और दिन प्राणियों को मधु होय हमारे कल्याण के लिये यह पालन करनेहारा धुलोक मधु होय नभचर जीवों को सुखी करते हुये भुवर्लोक को सुखी वनावे । + एनम् इस व्याहृति को । + उक्त्वाकहकर । + द्वितीयम् मन्य के दूसरे । + ग्रासम्-ग्रास को । प्राचामति खाता है। धियः यः नः प्रचोदयात् । मधुमानो वनस्पतिमधुमां अस्तु ‘सूर्यः माध्वीवो भवन्तु नः स्वः स्वाहा इति-हे परमात्मन् ! हमारे लिये वनस्पति मधुर होवें, सूर्य मधुर होवे हमारे लिये गौवें