पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७४३

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अध्याय ६ ब्राह्मण ३ ७२९ .. मन्त्रः ७ तछ हैतमुद्दालक आरुणिर्वाजसनेयाय याज्ञवल्क्या- यान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एनछ शुष्के स्थाणौ निपिञ्चेन्जायेरशाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ पदच्छेदः। तम् , ह, एतम्, उद्दालकः, आरुणिः, वाजसनेयाय, याज्ञवल्क्याय, अन्तेवासिने, उक्त्वा, उवाच, अपि, यः, एनम् , शुष्के, स्थाणी, निषिश्चत्, जायेरन् , शाखाः, प्ररोहेयुः, पलाशानि, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । ह-इसके पश्चात् । आरुणि:-अरुण के पुत्र । उहालका उद्दालक ऋषि ने । तम्-उस । एतम्-इस होम विधि को। वाजसनेयाय +स्वस्य अन्तेवासिने-अपने शिष्य वाजसनेयी। याज्ञवल्क्याय याज्ञवल्क्य के प्रति । उक्त्वा उपदेश देकर । उवाचकहाकि । यःजी । एनम्-इस मन्य को । शुष्के-सूखे। स्थाणी वृक्ष के ऊपर । निषिञ्च त्-डाल देवे तो । शाखा: ढालियां । जायरन् निकल आवें । च-और । पलाशानि-पत्त । प्ररोहेयुः इति लग जायें । भावार्थ । हे सौम्य ! इसके पश्चात् अरुण के पुत्र उद्दालक ऋषि ने इसी होमविधि को अपने शिष्य वाजसनेयी याज्ञवल्क्य के प्रति उपदेश करके उससे कहा कि जो कोई इस मन्थ को सूखे वृक्ष पर डाल देवे तो उस सूखे वृक्ष में से नूतन डालियां निकल पाने और पत्तियां भी लग जाय ॥ ७ ॥