पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/८५

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अध्याय १ ब्राह्मण ४ ६६ पाप्मनः पापों को । औषत् जलाता भया । अस्मात्-तिसी कारण । सर्वस्मात् प्रजापति पद पानेवालों में से । + स:- वह । पूर्वप्रथम । + अभवत्-होता भया । तस्मात् इसलिये । यःजो पुरुप । अस्मात् प्रजापति होनेवालों में से । + प्रथमः प्रथम । वुभूपति-होना चाहता है । सः पुरुषः ह वैवह पुरुप अवश्य । तम्-उस पुरुप को । श्रोपति-नाश कर डालता है यानी तेजहीन कर देता है । यः-जो। एवम्-इस प्रकार । वेद-अपने में उस पदवी पाने की इच्छा करता है। भावार्थ। हे सौम्य! जगत् उत्पत्ति के पहिले केवल एक आत्माही था, वही पीछे से हिरण्यगर्भ होता भया, और वही प्रथम पुरुष चारो तरफ देखकर और अपने से पृथक् कोई भिन्न वस्तु न पाकर काइने लगा, मैं ही सवका आत्मा हूँ और यही कारण है कि वह हिरण्यगर्भ अहं नामवाला होता भया, जिस कारण उसने प्रथम कहा तिसी कारण अब भी लोग पुकारे जाने पर कहते हैं कि यह मैं हूँ और इसके पीछे अपना दूसरा नाम देवदत्त यादि लगाकर कहते हैं और जिस कारण उस प्रजापति ने सब पापों को जला दिया उसी कारण वह सब प्रजापति पद पाने की इच्छा करनेवालों में से प्रथम होता भया, इसलिये जो पुरुप प्रजापति होनेवालों में से प्रथम होना चाहता है वह पुरुष अवश्य उस पुरुष को नाश कर डालता है यानी तेज- हीन कर देता है, जो इस प्रकार अपने में उस पदवी को पाने की इच्छा करता है ॥ १ ॥ मन्त्रः २ सोऽविभेत्तस्मादेकाकी बिभेति स हायमीक्षाञ्चक्रे यन्म-