पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१००

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बौद्ध-धर्म-दर्शन बुद्ध मध्यम मार्ग का उपदेश करते थे। उनका श्रादर्श दूसरा था। ये श्रारण्यक संसार से विरक्त हो एकान्तवास करते थे और अपनी उन्नति के लिए ही सचेष्ट रहते थे। इनकी तुलना खग-विषाण से देते हैं, जो वर्गचारी (झुण्ड में ) नहीं होता, वन में एकाकी रहता है। यह विचारणीय है कि विनय में धुतगुणों का उल्लेख नहीं है। परिवार में इन व्रतों की निन्दा की गई है। पीछे के अभिधर्म-ग्रन्थ जैसे विसुद्धिमगो में इनका उल्लेख है । मिलिन्द- प्रश्न में भी १३ धुतंगों की प्रशंसा की गई है । धुतवादियों के प्रभाव के बढ़ने से उन उत्सवों का महत्व घटने लगा, जिनमें उपासकों का विशेष भाग था। यह परिवर्तन प्रथम संगीति के विवरणों से उपलक्षित होता है। कथा है कि बुद्ध परिनिर्वाण पर धर्म-विनय के संग्रह के लिए संगीति हुई। यह वाकाल में हुई । ५०० अर्हत् संमिलित हुए। इनके प्रमुख प्राचार्य महा- काश्यप थे । दीपवंश में इस संगीति का वर्णन देते हुए महाकाश्यप के लिए लिखा है कि वे धुतवादियों के अगुना थे-"धुतवादानं अग्गो सो कस्सपो जिनसामने ।" वे संगीति के प्रधान हुए। प्रथम धर्मसंगीति वर्षाकाल में जो उत्सव होता था, उसमें मय प्रकार के भिन्तु और उपासक मंमिलित होते थे; किन्तु पालिकथा के अनुसार इस संगीति में उपासकों का ममिलित होना तो दूर रहा, केवल वहीं भिक्षु संमिलित किये गये, जो अर्हन् हो चुके थे। यह भी विचित्र बात है कि यद्यपि अानन्द ने ही सूत्रों का संग्रह किया, तथापि इस हेतु को देकर कि वे अभी ग्रहत नहीं हुए हैं, वे संगीति से पृथक् किये गये और जब उन्होंने अर्हत् फल की प्राप्ति की, तभी समिलित किये गए । भगवान् ने जब धर्मचक्र प्रवर्तन किया तब ६० भिक्षु एक उपदेश से ही अर्हत् हो गये । परिनिर्वाण के पहले जो अाखिरी भितु हुअा, वह 'सुभद्र' भी अर्हत् हो गया । किन्तु अानन्द, जो भगवान् को इतने प्रिय थे, जिन्होंने २५ वर्ष भगवान् की परिचर्या की, जिनको बहुश्रुत, धर्म- धर कहकर भगवान् ने भूरि-भूरि प्रशंसा की, वह अईन् पद को न पा सके। यह बात विश्वास के योग्य नहीं है । उनपर संगीनि में यह आरोप भी लगाया गया कि उन्होंने स्त्रियों को संब प्रवेश करने के लिए भगवान् से अभ्यर्थना की थी और भगवान से परिनिर्वाण के समय यह नहीं पूछा कि कौन-कौन क्षुद्र नियम हटाये जा सकते हैं। उस समय भिक्षुओं में जो ज्येष्ठ स्थविर होता था, वह प्रमुग्न होता था। उस समय सबसे ज्यट, अाज्ञात-कौण्डिन्य थे। यह पंचवर्गीय भिन्तुओं में से थे। दीपवंश के अनुमार उस समय पाठ प्रमुख थं 1 महाकाश्यप का स्थान अन्तिम था । उस पर भी प्रथम संगीति के बही प्रधान बनाये गये । फिर हम देखते हैं कि प्रमुग्य के अधिकार बढ़ गये थे। जहां पहले संघ का पूर्ण अधिकार था, वहां अब प्रमुख का अधिकार हो गया। संघ त्रिरत्रों में से एक था। भिन्तु और उपासक संघ में शरण लेते थे, न कि किमी प्राचार्य या प्रमुग्य में। प्रमुग्य को संघ के निर्णयों को कार्यान्वित करना पड़ता था; वह अपने मन्तव्यों को संव पर लाद नहीं सकता था। अतः दीपवंश में संघ स्वयं संगीति के सदस्यों को चुनता है । किन्तु दीपवंश और चुनराम्ग के अनुसार महाकाश्यप ने ५०० अहंत