पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०३

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द्वितीय अध्याय १५ चाहिये । हे आश्वलायन ! यदि ब्राह्मण-कुमार क्षत्रिय की कन्या के साथ संयाम करे और उसके पुत्र पैदा हो तो क्या उसे क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों न कहेंगे ?" "हाँ, कहेंगे, गौतम " "हे आश्वलायन ! मैं चारों वर्गों को शुद्ध मानता हूँ। जातिवाद ठीक नहीं है।" 'सुन्दरिक-भारद्वाज-सूत्र' में भगवान् कहते हैं कि जाति मत पूछो, श्राचरण पूछो--(मा जाति पुच्छ चरणं च पुच्छ)। हवन के लिए लाये हुए, काष्ठ से अग्नि उत्पन्न होती है । नीच और अकुलीन भी धृतिमान् और श्रेष्ठ होता है । वासेहपुत्त-मुत्त में वासिष्ठ और भारद्वाज दो माणवक भगवान् के समीप श्राते हैं और कहते हैं कि हममें जातिवाद के संबन्ध में विवाद है। भारद्वाज कहता है कि जन्म से ब्राह्मण होता है और वासिष्ट कहता है कि कर्म से होता है । बताइये, हममें से कौन ठीक है ? बुद्ध कहते हैं कि जिस प्रकार कीट-पतंग, चतुष्पद, मत्स्य, पक्षी अादि जातियों में बातिमय पृथक्-पृथक् लिंग होता है, उस प्रकार मनुष्यों में नहीं होता। मनुष्यों में जिस किसी की जीविका गो-रक्षा है, वह कृषक है; वह ब्राह्मण नहीं है जिसकी जीविका व्यवहार है, वह वणिक् है । जिसकी जीविका पौरोहित्य है, वह याजक है और जो राष्ट्र का भोग करता है, वह राना है। किन्तु तप, ब्रह्मचर्य, संयम और दम से ब्राह्मण होता है, जटा से, गोत्र से, जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। जिसमें सत्य और धर्म है, वह शुचि है, वह ब्राह्मण है । (धम्मपद-ब्राह्मण, वर्ग ) हे दुर्मेध ! तुम्हारी बटा और अजिन शाटी से क्या होता है ? तुम्हारा आभ्यन्तर तो गहन है और तुम बाह्य का परिमार्जन करते हो। भगवान् कहते हैं कि लोक में जो नाना संज्ञाएँ, प्रचलित हैं, वे भितुभाव ग्रहण करने पर लुप्त हो जाती है, जैसे विभिन्न नदियां समुद्र में मिलकर अपने नाम-रूप को खो देती हैं । बौद्ध संघ में सबके लिए स्थान था। उस समय शूद्रों को तप करने का अधिकार न था; वे वेदाध्ययन भी नहीं कर सकते थे । श्रमणों ने सबके लिए निःश्रेयस का मार्ग खोल दिया। बौद्धधर्म के प्रभाव से आगे चलकर अनेक अन्य सम्प्रदाय हुए, जिन्होंने सबको समान रूप से यह अधिकार दिया। भगवान् की शिक्षा व्यावहारिक थी। वे दुःख के अत्यन्त निरोध का उपाय बताते थे। लोक शाश्वत है अथवा अशाश्वत; लोक अन्तवान् है या अनन्त; जीव और शरीर एक है या भिन्न; तथागत मरण के पश्चात् होता है या नहीं-इत्यादि दृष्टियों का व्याकरण (व्याख्या) बुद्ध ने नहीं किया है; क्योंकि उन्हीं के शब्दों में यह अर्थसंहित नहीं है और ये ब्रह्मचर्य- प्रवण नहीं हैं । ये विराग, विरोध, उपशम, संबोध, निर्वाण, संवर्तनीय नहीं हैं । ब्रह्मचर्य-वास इन दृष्टियों में से किसी पर श्राधित नहीं है। इन दृष्टियों के होते हुए भी, जन्म, जरा, मरण, शोक, दुःख होते ही हैं जिनका विघात इसी जन्म में हो सकता है । बुद्ध ने श्रावकों से पूछे माने पर इन प्रश्नों का उत्तर देने से इन्कार किया । भगवान् 'अग्निवच्छगोत्त-सुत्ता में पुनः कहते हैं कि ये दृष्टियां कान्तार, गहन, संयोजन ( बन्धन) श्रादि हैं । ये दुःख-परिदाह में हेतु हैं; ये निर्वाण सेवर्तनीय नहीं हैं। इसलिए, मैं इन दृष्टियों में दोष देखता हूँ और इनका उपगम नहीं करता । तथागत सब दृष्टियों से अपनीत हैं। इसलिए बुद्ध, ऐसे प्रश्नों की गुस्थियों को