पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०४

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१६ बौख-धर्म-दर्शन सुलझाने में नहीं लगे थे। यह तो दर्शनशास्त्र का विषय था। बुद्ध ने मोक्ष का उपाय बताया। इससे इन प्रश्नों का क्या संबन्ध है ? आगे चलकर जब बौद्ध-दर्शनशास्त्र संगठित हुए, तब उन्होंने इन प्रश्नों का उत्तर दिया। अन्य सम्प्रदायों से जब वाद-विवाद होता था, तब बौद्ध इन प्रश्नों का उत्तर देने के लोभ का संवरण न कर सके और बुद्ध की इस शिक्षा को वे भूल गये कि ये दृष्टियाँ अर्थ-सहित नहीं । मध्यम-मार्ग भगवान् बुद्ध का बताया मार्ग मध्यम-मार्ग कहलाता है; क्योंकि यह दोनों अन्तों का परिहार करता है । जो कहता है कि श्रात्मा है. वह शाश्वत दृष्टि के पूर्वान्त में अनुपतित होता है, जो कहता है कि प्रात्मा नहीं है, वह उच्छेद-दृष्टि के दूसरे अन्त में अनुपतित होता है । उच्छेद और शाश्वत दोनों अन्तों का परिहार कर भगवान् मध्यमा-प्रतिपत्ति ( मार्ग ) का उपदेश करते हैं। एक अन्त काम-सुखानुयोग है, दूसरा अन्त अात्मजमथानुयोग है। भगवान् दोनों का परिहार करते हैं । भावान् कहते हैं कि देव और मनुष्य दो दृष्टिगतों से परिपुष्ट होते हैं। केवल चक्षुष्मान् यथाभूत देखता है । एक भव में रत होते हैं । जत्र भवनिरोध के लिए धर्म की देशना होती है तब उनका चित्त प्रसन्न नहीं होता। इस प्रकार वह इसी ओर रह जाते हैं । एक भव से जुगुप्सा कर विभव का अभिनन्दन करते हैं। वे मानते हैं कि उच्छेद ही शाश्वत और प्रणीत है । वे अतिश्रावन करते हैं । चक्षुष्मान् भूत को भूततः देखता है; भूत को भूततः देखकर वह भूत के विराग, निरोध के लिए प्रतिपन्न होता है। यह मध्यम-मार्ग अष्टांगिक-मार्ग है । भावान् यह नहीं कहते कि मुझपर श्रद्धा रखकर बिना समझे ही मेर धर्म को मानो । भगवान् कहते हैं कि यह एहि परिसक', 'पञ्चतं वेदितन्त्र' धर्म है। भगवान् सबको निमंत्रण देते हैं कि पात्रो और देखो, इस धर्म की परीक्षा करो। प्रत्येक को इसका अपने चित्त में अनुभव करना होगा। यह ऐसा धर्म नहीं है कि एक मार्ग की भावना करे और दूसरा फल का अधिगम करे । दूसरे के साक्षात्कार करने से इसका साक्षात्कार अपनेको नहीं होता। इसलिए, भगवान् कहते हैं कि हे भिक्षुओ! तुम अपने लिए, स्वयं दीपक हो; दूसरे की शरण न जाओ । धम्मपद में भावान् कहते हैं-~~"अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति ।" भगवान् एक सूत्र में कहते हैं कि धर्म प्रतिसरण है, पुद्गल (जीव) नहीं । प्रतिसरण का अर्थ है 'प्रमाणः । शास्ता भी प्रतिसरण नहीं हैं। एक ब्राह्मण अानन्द से पूछता है कि भावान् ने या संघ ने किसी भिक्षु को नियत किया है, जो उनके पीछे प्रतिसरण होगा ? अानन्द ने उत्तर दिया, नहीं । ब्राह्मण ने कहा कि बिना प्रतिसरण के संघ की सामग्री ( साकल्य ) कैसे रहेगी । आनन्द ने कहा कि हम बिना प्रतिसरण के नहीं है । धर्म हमारा प्रतिसरण है । लोग श्रात्मकल्याण के लिए, अनेक मंगल कृत्य करते हैं; तिथि, मुहूर्त नक्षत्रादि का फल विचरवाते है; नाना प्रकार के व्रतादि करते हैं और उनकी यह दृष्टि होती है कि यह पर्याप्त है । उन्हें 'शीलात-परामर्श कहते हैं। इनमें अभिनिवेश होने से प्रात्मोन्नति का मार्ग बन्द हो जाता है । यही के लिए, दृष्टि का शोध काटन होता है; क्योंकि उसकी विविध दृष्टि