पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०७

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द्वितीय अध्याय १६ 1 प्राणातिपातादि वधादिविरमन और भिक्षुओं के लिए अदिष्ट वर्त-प्रतिपत्ति ( कर्तव्य- श्राचार ) की, संवर श्रादि की पूर्ति शील है। दो शुक्ल धर्मों के होने से शील की उत्पत्ति, स्थिति होती है। यह ही और अत्रपा हैं। ये दो शुक्र धर्म लोक का पालन करते हैं । शील संपन्न पुगत की तीन शुचियां होती है-काय, वाक्, चेतस् । उपासक के लिए पांच विरति हैं और भिक्षुओं के लिए, दस । ये पंच-शील और दश-शील कहलाती हैं । (१) प्राणातिपात-विरति; (२) अदत्तादान';(1) अब्रह्मचर्य ; (४) मृषावाद'; (५) सुरामयमैरेय'; (६) अकालभोजन"; (७) नृत्यगीत-बादित्र'; (6) माल्य-गन्ध-विलेपन'; (६) उच्चासनशयन'; तथा (१०) जातरूप-रजत प्रतिग्रह जो भिन्तु शिक्षापदों की रक्षा करता है, जो प्राचार-गोचर संपन्न है, अर्थात् जो मनसा, वाचा, कर्मणा अनाचार नहीं करता और योगक्षेम चाहनेवाले कुलों का सेवन करता है, जो अणुमात्र भी पाप से डरता है, जिनकी इन्द्रियाँ संवृत है, जो श्राजीव के लिए पाप धर्मों का श्राश्रय नहीं लेता अर्थात् जिसका श्राजीव परिशुद्ध है, जो भिन्तु परिष्कारों का उपयोग प्रयोजना- नुसार करता है, जो शीतोष्ण से शरीर-रक्षा के लिए और लजा के लिए, चीवर धारण करता है, शरीर को विभूचित करने के लिए नहीं; जो शरीर की स्थिति के लिए श्राहार करता है। इत्यादि, उस भिक्षु का शील परिपूर्ण होता है । इस प्रकार शीलसंपन्न होकर समाधि की भावना करनी चाहिये । कुशल चित्त की एकाग्रता समाधि है। जब तक चित्त सुभावित नहीं होता, तब तक राग से उसकी रक्षा नहीं होती। जैसे अच्छी तरह छाये हुए. घर की वृष्टि से हानि नहीं होती, उसी प्रकार सुभाक्ति चित्त में राग को अवकाश नहीं मिलता (धम्मपद)। अनेक प्रयोगों से चित्त को समाहित करते हैं । यहाँ सबका वर्णन करना संभव नहीं है। धागे समाधिप्रकरण में इसका विस्तार से वर्णन करेंगे। यहां केवल दिल्यात्र का निदर्शन करते हैं | कल्याणमित्र से चर्यानुकूल कोई कर्मस्थान ( योगानुयोग की निष्पत्ति में हेतु ) का ग्रहण करना चाहिये । उदाहरण के लिए मृत्पिण्ड, नीलपीतादि पुष्प या वस्त्र का ध्यान करते हैं। चार या पाच ध्यान हैं । जत्र अभ्यासक्श ध्यान विशद होते हैं, तब समापत्ति ( समाधि ) कौशल प्राप्त होता है । अन्य भी कर्मस्थान हैं, किन्तु अशुभ, अानापान-स्मृति और मैत्री-भावना का विशेष महत्त्व है। रागाग्नि के उपराम के लिए अशुभ संज्ञा है । 'काय को अशुभ, अशुचि समझना यह अशुभ-संज्ञा है। इससे रागानुशय प्रहीण होता है। पानापान-स्मृति प्राणायाम का प्रयोग है। इससे काम और चित्त की प्रश्नब्धि होती है। इस कर्मस्थान की भावना से भगवान कहते हैं कि पाप, अकुशल-धर्म ज्यों ही उत्पन्न होते हैं, त्यों ही अन्तर्हित हो जाते हैं। इसकी भगवान् ने बहुत प्रशंसा की है। यह स्वभाव से ही शान्त और प्रणीत है | द्वेषामि के उपशम के लिए, मैत्री-भावना है। इससे शान्ति का अधिगम होता है | बुद्ध कहते हैं कि क्षान्ति परम-तप है,शान्ति का बल बड़ा है । मैत्री-भावना करने वाला प्रार्थना करता है कि सब सत्त्व सुखी हों; सम्र का क्षेम-कल्याण हो । वह सब दिशाओं को मैत्री-सहगत-चित्त से व्याप्त करता है। मैत्री-भावना चार ब्रह्म-विहारों में से एक है । अन्य ब्रह्म-विहार मुदिता, करुणा, उपेक्षा है। इनका