पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०८

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बौड-धर्म-पान उल्लेख योगसूत्र में है। इस प्रकार समाधि द्वारा चित्त को कुशल, शुभ धर्मों में समाहित कर केशों को अभिभूत करते हैं। किन्तु इससे कैश निर्मूल नहीं होते। इसके लिए प्रजा की भावना करनी होती है। 'इतिवृत्तका में कहा है कि मोहामि के उपशम के लिए, निर्वेधगामिनी प्रशा की आवश्यकता है । 'प्रशा' कुशल (शुभ) चित्त, संप्रयुक्त-विपश्यना, ज्ञान है । धर्मों के स्वभाव का प्रतिवेध करना प्रज्ञा का लक्षण है । समाधि इसका श्रासन्न कारण है, क्योंकि समाहित चित्त ही यथाभूतदर्शी होता है। सब संस्कार अनित्य और दुःख हैं, सब संस्कार अनात्म हैं । लोक शाश्क्त है, इत्यादि मिथ्यादृष्टि का प्रहाण प्रज्ञा से होता है । प्रतोत्य-समुत्पाद दुःख का समुदय, हेतु,-दुःख की उत्पत्ति कैसे होती है, इसका यथाभूत ज्ञान दुःख- निरोध के लिए आवश्यक है । इस क्रम को प्रतीत्यसमुत्पाद ( हेतु-फलपरम्परा ) कहते हैं । बुद्ध की देशना में इसका ऊँचा स्थान है। इसलिए हम संक्षेप में इसका निर्देश करेंगे । इसके बारह अंग है--विद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति तथा जरामरण । इस प्रक्रिया से केवल दुःख-स्कन्ध ( राशि ) का समुदय होता है । हेतु-प्रत्ययवश धर्मों की उत्पत्ति होती है। अविद्या-प्रत्ययवश संस्कार होते हैं, संस्कार- प्रत्ययवश विज्ञान होता है, एवमादि । अतः प्रतीत्यसमुत्पाद प्रत्यय धर्म है और प्रतीत्य समुत्पन्न उन उन प्रत्ययों से अभिनिवृत्त, उत्पन्न धर्म है । द्वादश प्रतीत्य-समुत्पाद को तीन काण्डों में विभक्त करते हैं....अविद्या और संस्कार अतीत में, पूर्व-भव में; जाति और जरामरण अपर-भन्न में शेष पाठ अंग वर्तमान-भव में। हमारा यह श्राशय नहीं है कि मध्य के पाठ अंग सब जीवों के प्रत्युत्पन्न ( वर्तमान )-भव में नित्यं पाये जाते हैं। यहाँ हम उस संतति का विचार करते हैं, जो सर्वाङ्ग है । प्रतीत्यसमुत्पाद की इस कल्पना में जो विविध अंग है, हम उनका यहाँ संक्षेप में वर्णन करते हैं । श्रागे चलकर प्रतीत्य-समुत्पाद-बाद के प्रसङ्ग में विस्तृत विवेचन करेंगे। (१) अविद्या-पूर्व जन्म की क्लेश दशा है । यहाँ पूर्वजन्म की संतति, जो शावस्था में होती है, अभिप्रेत है। (२) संस्कार---पूर्व जन्म की कौवस्था है। पूर्व भव की संतति पुण्य अपुण्यादि कर्म करती है। यह पुण्यादि कर्मावस्था 'संस्कार' है। (१) विज्ञान-प्रतिसन्धि-स्कन्ध है । प्रतिसन्धि-क्षण ( उपपत्ति-क्षण ) में कुक्षि के जो पंच-स्कन्ध होते हैं, वह विधान है। (४) इस क्षण से लेकर पडायतन की उत्पत्ति तक 'नामरूप है । (५) प्रडायतन-इन्द्रियों के प्रादुर्भाव काल से इन्द्रिय, विश्य और विज्ञान के सत्रिपात काल तक 'पडायतन है। (6) स्पर्श-सुख दुःखावि के कारण शान की शक्ति के उत्पन्न होने से पूर्व स्पर्श है।