पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/११०

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बौद्ध-धर्म-दर्शन अष्टांगिक मार्ग वह कौन सा उपाय है जिससे कर्मक्लेश का अत्यन्त निरोध होता है । यह श्रार्य अष्टांगिक मार्ग है । इसे उत्तम मार्ग कहा है । इसके अाठ अंग इस प्रकार है- सम्यग-दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यग-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति, सम्यग-वाक् , सम्यक्-कर्मान्त, सम्यगाजीव तथा सम्यक्-समाधि । इसमें शील, समाधि और प्रज्ञा का समावेश है । सम्यग्दृष्टि का शीर्ष स्थान है, क्योंकि सम्यग-दृष्टि से विशोधित शील और समाधि इष्ट हैं । हम अपर कह चुके हैं कि क्लेश-कर्मवश दुःख की उत्पत्ति होती है । अतः दुःत्र के निरोध के लिए क्लेश-बीज को दग्व करना चाहिये । क्लेश-बीज 'अनुशय' है, जो होते हैं। इनका सूक्ष्म प्रचार होता है, ये दुर्विजेय है, ये पुष्टि-लाभ करते हैं । बिना प्रयोग के ही और निवारण करने पर भी इनका पुनः पुनः संमुखीभाव होता है। अनुशय सात हैं--कामराग, भवराग, प्रतित्र, मान, अविद्या, दृष्टि तथा विचिकित्सा । इनमें से कोई दर्शन-हेय है और कोई भावना-हेय हैं। भावना पुनः पुनः सत्यदर्शन है। यह समाहित-कुशल चित्त है | चित्त-सन्तति को समाहित-कुशल अत्यन्त वासित करता है, गुणों से तन्मय करता है; जैसे फूल से तिल को वासित किया जाताहै। शील और चित्त को विशुद्ध कर चार स्मृत्युपस्थान की भावना करते हैं। इन्हें भगवान् ने कुशल-राशि कहा है। इस अभ्यास में काम, वेदना, चित्त और धमां के स्वलक्षण और सामान्यलक्षणों की परीक्षा करते हैं। योगी विचार करता है कि सत्र संस्कृत अनित्य हैं, सब सानव-धर्म दुःख है, सब धर्म शून्य और अनामक हैं; काम का स्वभाव चार महाभूत और भैातिक रूप है । इस अभ्यास से चार निर्वेधभागियों का लाभ होता है । ये चार कुशल-मूल है-उमगत, मूर्धन् , क्षान्ति और अधर्म | ये लौकिक सम्यग् दृष्टि की चार उदृत अवस्थाएं हैं । जत्र धर्म-स्मृत्युपस्थान में स्थित हो, योगी समन्त अालम्बन को अनित्यतः, दुःखतः, शून्यतः और निरात्मतः देखता हो, तब 'उमगत' (एक प्रकार का कुशल-मूल) की उत्पत्ति होती है। यह आर्य-मार्ग का पूर्व निमित्त है । यह वह उम्म ( अनि ) है, जो क्लेशरूपी इन्धन को दग्ध करता है । चतुःसत्य इसका गोचर है और इसके १६ श्राकार हैं। उमगत से 'क्रमेण की उपत्ति होती है । ये तत्सम होते हैं, किन्तु प्रणीत होने के कारण इनको दूसरा नाम देते हैं । 'मूर्ध शब्द प्रकर्ष पर्यन्तवाची है। चार कुशल मूलों का यह शीर्य है, क्योंकि इससे परिहाणि हो सकती है। मूर्धन् से 'ज्ञान्ति उत्पन्न होती है। 'क्षान्तिः संज्ञा इसलिए है, क्योंकि इस अवस्था में आर्य-सत्यों में अत्यन्त रुचि होती है। शान्ति के तीन प्रकार है-मृदु, मध्य और अधिमात्र । मृदु और मध्य तद्वत् है । अधिमात्र 'क्षान्ति' का विषय कामाप्त दुःख है। इनसे लौकिक अप्रधर्म उत्पन्न होते हैं । ये सासव होने से लौकिक हैं । ये भी अधिमात्र क्षान्ति के तुल्य कामात दुःख को पालम्बन बनाते हैं और एक-क्षणिक हैं। इस प्रकार स्मृत्युपस्थान प्रणीततम होते हैं और सत्यों के अनानव-दर्शन ( अभिसमय ) का आवाहन करते हैं ।