पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१११

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द्वितीय अध्याय इन्हें निवेधभागीय कहते हैं, क्योंकि ये निश्चित-वेध हैं। इनसे विचिकित्सा का प्रहाण और सत्यों का वेध (विभजन ) होता है; "यह दुःख है, यह दुःख-समुदय है, यह निरोध है, यह मार्ग है ।" यह प्रयोग-मार्ग है । अब प्रहाण-मार्ग श्राता है, जिससे क्लेशों का प्रहाण होता है । श्रच सत्यों के अनानव-दर्शन ( सत्याभिसमय ) का प्रारम्भ होता है। यह अनास्लव प्रशा है; यह सर्व विपर्याम से विनिमुक्त, रागादि सर्व क्लेश-रहित है । यह सत्यों के सामान्य लक्षणों का ग्रहण करती है । योगी पहले कामधातु के दुःख-सत्य का दर्शन करता है । पहले क्षण वह सकल विचिकित्सा का अन्त करता है । यह प्रमाण-मार्ग है, यह श्रानन्तर्य-मार्ग है । यह प्रथम क्षण 'सम्यक्चनियामावक्रान्ति' कहलाता है; इस समय से योगी आर्य कहलाता है । वह श्रामण्य के प्रथम फल में प्रतिपन्न हो जाता है । जत्र विचिकित्सा का नाश होता है, तब दूसरे क्षण में यह एक नेश प्रकार से विमुक्त होता है। यह विमुक्ति-मार्ग है। इसी प्रकार अन्य क्षणों में वह रूप और प्रारूप्य-धातु दुःख-सत्य का दर्शन करता है। इसी प्रकार वह अन्य सत्यों का दर्शन करता है और अमुक-अमुक लंश प्रकार से विमुक्त होता है । इस प्रक्रिया के समाप्त होने पर भावना-मार्ग का प्रारम्भ होता है। उस ममय योगी स्रोत-बापन्न-फल का अधिगम करता है। उसकी विमुक्ति निश्रित हो जाती है और अाशु होती है। वह अधिक से अधिक सात या चौदह जन्मों में निर्वाण का लाम करेगा। दर्शन-मार्ग केवल दृष्टियों का समुच्छेद करता है । यह राग-द्वेष का उपच्छेद नहीं करता, जो केवल भावना-हेय है । यह अभ्यास का, पुनः पुनः प्रामुखीकरण का मार्ग है। योगी दर्शन-मार्ग से व्युत्थान कर अनासत्र भावना-मार्ग में प्रवेश करता है । इसमें सत्य का पुनः पुनः दर्शन करना होता है । इस भावना से योगी नौ प्रकार के क्लेशों का क्रम से प्रहाण करता है। जो छठे प्रकार के कामावचर-क्लेशों का हाण करता है, वह सकृदागामी होता है। वह केवल एक बार और काम-धातु में उत्पन्न होगा। जो नौ प्रकार के इन क्लेशों का प्रहाण करता है, वह अनागामी होता है । वह कामधातु में पुनरुत्पन्न न होगा। जिस प्रहाण-मार्ग से योगी भवान के रेशों के न प्रकार का प्रहार करता है, उसे वनोपम-समाधि कहते हैं। इसके अनन्तर विमुक्ति मार्ग है । तब योगी अर्हत् , अशैक्ष हो जाता है । वह क्षय-ज्ञान और अनुत्पाद-ज्ञान से समन्वागत होता है। संक्षेप में यह मोक्ष की साधना है । श्रागे इसका विस्तार से वर्णन होगा। पंच-शील मोक्ष की प्राप्ति अत्यन्त दुष्कर है। गृहस्थ के लिए अनेक विघ्न हैं। उसके लिए. यह साधना सुलभ नहीं है । साधारणतः ने स्वर्गोपपत्ति चाहते हैं। उनके लिए शील की शिक्षा है । उपासक होने के लिए निशरण-गमन विधि है । जो उपासक होना चाहता है, वह बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाता है । "बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्म शरणं गच्छामि, संध शरणं गच्छामि, ये विरल हैं। बुद्ध की शरण में जाने का अर्थ है बुद्धकारक धर्मों की शरण में जाना।