पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/११२

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बौ-धर्म-दाम उपासकों के पंच-शील ये है-- १-मायातिपात-विरति, २-अदत्तादान-विरति, ३-काम-मिथ्याचार-विरति, ४-मृषावाद- विरति तथा ५-मुरा-मैरेय-प्रमाद-स्थान-विरति । उपासक धर्म-श्रवण करते हैं, उपवास-व्रत रखते हैं, भिक्षुओं को दान देते हैं, चार तीर्थों की यात्रा करते हैं । चार तीर्थ ये है-कपिलवस्तु, बोधिगया, सारनाथ, कुसिनारा । उपासक को भद्रक-शील और भद्रक-दृष्टि से समन्वागत होना चाहिये । उसको मानसिक, कायिक तथा वाचिक दुरित से बचना चाहिये । उसको सुचरित करना चाहिए । इस प्रकार वह अपाय-गति से बचता है और स्वर्ग में उत्पन्न होता है। बुद्ध वर्ग-नरकादि मानते थे। उनका लोकवाद वही था, जो कि उस समय के वैदिकों का था | केवल अईत् को वे सबसे ऊँचा और उत्तम पद समझते थे । वास्तव में दीर्घायु देव की अवस्था अक्षणावस्था है, क्योंकि इसमें धर्म-प्रविचय अशक्य है । उस काल में ऋद्धि-प्रतिहार्य का बड़ा प्रभाव था । सब धर्मों में अद्भुत कर्मों का प्रभाव रहा है । बौद्ध-धर्म भी इससे न बच सका। किन्तु बुद्ध ने भिक्षुओं को 'उत्तरि मनुस्सधम्म' दिखाने से मना किया और अनुशासनी-प्रातिहार्य ( उपदेश ) का सबसे अधिक महत्त्व बताया, अर्थात् धर्मोपदेश ही सबसे बड़ा अद्भुत कर्म है ।