पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय अध्याय (१५) चरियापिटक—यह खुद्दकनिकाय का अन्तिम ग्रन्थ है । इम्में ३५ जातकों का संग्रह है; और बुद्ध ने अपने पूर्वभव में कौन सी पारमिता किस भव में किस प्रकार पूर्ण की इसका वर्णन है। मभिधम्म-पिटक-भगवान बुद्ध के उपदेशों के आधार पर बौद्ध दार्शनिक विचारों की व्यवस्था इस पिटक में की गई है। इसमें १. धम्मसंगणि २. विभा ३. धातु-कथा ४. पुमाल पत्ति ५. कथावत्थु ६. यमक और ७. पट्टान–इन सात ग्रन्थों का समावेश होता है । धम्मसंगण में धमों का वर्गीकरण और प्याख्या की गई है। विभंग में उन्हीं धर्मों के वर्गीकरण को आगे बढ़ाया है और भंगजाल खड़ा किया गया है। धातुओं का प्रश्नोत्तर रूप में व्याख्यान धातु-कथा में है । पुमालपत्ति में मनुष्यों का विविध अंगों में वर्गीकरण किया गया है। इसका अंगुत्तरनिकाय के ३-५ निपात के साथ अधिक साम्य है । मनुष्यों का वर्गीकरण गुणों के आधार पर विविध रीति से इसमें किया गया है। कथावत्यु का महत्व बौद्धधर्म के विकाम के इतिहास के लिए सर्वाधिक है । पिठकान्तर्गत होने पर भी इसके लेखक तिम्र-मोग्गलिपुत्त हैं, जो तीसरी मंगीति के अध्यक्ष थे । यद्यपि यह ग्रन्थ ई० पू० तीसरी शताब्दी में उक्त आचार्य ने बनाया था फिर भी उसमें क्रमश: बौद्धधर्म में बो मतभेद हुए उनका भी संग्रह बाद में होता रहा है । प्रश्नोत्तर-शैली में इस ग्रन्थ की रचना हुई है । मतान्तरों का पूर्वपक्षरूप में समर्थन करके फिर उनका खण्डन किया गया है । खास करके श्रात्मा है या नहीं ऐसे प्रश्न उठाकर बौद्ध-मन्तव्य की स्थापना की गई है। यमक में प्रश्नों का उत्तर दो प्रकार से दिया गया है और कथावत्थु तक के ग्रन्थों से जिन शंकाओं का समाधान नहीं हुअा उनका विवरण इसमें किया गया है। पट्टान को महापकरण भी कहते हैं । इसमें नाम और रूप के ६४ प्रकार के कार्यकारण- भाव संबन्ध की चर्चा है और बताया गया है कि केवल निर्वाण ही असंस्कृत है बाकी सब धर्म संस्कृत हैं। पिटकेतर पालि-प्रन्य पिटकबाह्य पालिग्रन्थों के निर्माण का श्रेय सिलोन के बौद्ध भिक्षुओं को है किन्तु इसमें मिलिन्दप्रश्न अपवाद है। इतना ही नहीं किन्तु समस्त पालि-वासाय में शैली की दृष्टि से भी यह बेजोड़ है । इसके लेखक का पता नहीं किन्तु यह उत्तर-पश्चिम भारत में बना होगा ऐसा अनुमान किया जाता है। प्रीक सम्राट मिनेण्डर ( ई० पू० प्रथम श.) को ही मिलिन्द कहा गया है और प्राचार्य नागसेन के साथ उनके संवाद की योजना इस प्रन्य में होने से इसका सार्थक नाम मिलिन्द प्रश्न है। इस ग्रन्थ की प्राचीनता और प्रामाणिकता इसी से सिद्ध होती है कि प्राचार्य बुद्धघोष ने इस ग्रन्थ को पिटक के समान प्रामाणिकता दी है। मूल मिलिन्दप्रश्न । मूल के कलेवर में बाद में प्राचार्यों ने समय-समय पर वृद्धि भी की है।