पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१२३

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चतुर्थ अध्याय निकायों का विकास बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् शामन कायों ( सम्प्रदाय) में विभक्त होने लगा । चुल्लवमा के अनुसार निर्वाण के १०० वर्ष के पश्चात् संघ में भेद हुश्रा । वैशाली के भिक्षु नियमों के पालन में शिथिल थे । कुछ वस्तुनों पर उनका मतभेद था । इन मनभेदों को लेकर पश्चिम और पूर्व के भिक्षुओं के दो पक्ष हो गये। झगड़े को शान्त करने के लिए. ७०० भिक्षुओं की सभा हुई और इन्होंने ८ स्थविरों की एक परिषद् चुनी, जिसमें चार पूर्व के संघ के और चार पश्चिम के संघ के प्रतिनिधि रखे गये । उस समय पूर्वमंघ का प्रधान स्थान वैशाली था। यहीं ७०० भिन्नुों की सभा हुई थी। इस सभा के पूर्व और पश्चिम के भिक्षुओं ने अपनी एक सभा मथुरा के पास अहोगंग में की थी। यश पहले कौशाम्बी गये और वहां से उन्होंने भिक्षुओं को आमन्त्रित करने के लिए संदेश भेजे थे। ६६ के लगभग पश्चिम के भिन्तु जो सब आरण्यक धुतंगवादी थे, यश के निमन्त्रण पर आये और अवन्ती के ८८ भिन्तु भी आये, जिनमें थोड़े ही धुनंगवादी थे। इन वृत्तान्त से मालूम होता है कि उस समय बुद्ध-शासन के तीन केन्द्र थे-वैशाली, जहां ७०० भिन्तुओं की एक सभा हुई; कौशाम्बी, जहां से यश ने संदेश भेजा था और मथुरा, जहां पश्चिम के भिक्षुओं की अपनी सभा हुई थी। इस बृहत् क्षेत्र में तीन प्रवृत्तियां मालूम होती हैं-वैशाली ( पूर्व ) मे विनय के पालन में शिथिलता थी,मथुरा के प्रदेश (पश्चिम) में विनय की कटोरता थी तथा अवन्ति और दक्षिणापथ में मध्यम- वृत्ति थी । अवन्ति और दक्षिणापथ का भौगोलिक संबन्ध कौशाम्बी से था। गंगा से भरुकच्छ जाने वाले राजपथ इनको जोड़ते थे। दक्षिणापथ के भितुओं की सभा करने की अावश्यकता यश ने न समझी। कौशाम्बी के प्रमुख भिन्नुओं का मत ही जानना उन्होंने पर्याप्त समझा। ऐसा प्रतीत होता है कि वैशाली, कौशाम्बी और मथुरा तीन निकायों के केन्द्र बन गये । पूर्व- भारत बौद्ध-धर्म के प्राचीन रूप का प्रदेश शा। मध्यदेश में ब्राह्मणों के प्रभाव से रूप में परिवर्तन होने लगा। यहां दो निकाय हो गये। एक कौशाम्बी का, जो दक्षिणापथ की ओर झुकता था और जिससे स्थविर-निकाय निकला हुआ प्रतीत होता है; दूसरा मथुरा का निकाय, जो उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ा और जिससे सर्वास्तिवादी निकायों की उत्पत्ति हुई। अब हमको यह देखना है कि पूर्व में किन निकायों की उत्पत्ति हुई।