पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१२७

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पंचम अध्याय शमथ-यान 'विसुद्धिमन्गो' नामक ग्रन्थ में विशुद्धि के मार्ग का निरूपण किया गया है अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति का उपाय बतलाया गया है । भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश में कही विपश्यना द्वारा, कहीं ध्यान और प्रज्ञा द्वारा, कहीं शुभ तकों द्वारा, कही कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम श्राजीविका द्वारा और कहीं शील, प्रज्ञा और समाधि द्वारा निर्वाण की प्राप्ति बतलाई है, जैसा नीचे लिखे उद्धरणों से स्पष्ट है-- सब्बे संखारा अनिच्चाति यदा पञाय पस्सति । अथ निबिन्दति दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया । [धम्मपद, २१५] अर्थात् जब मनुष्य प्रज्ञा द्वारा देवता है तो सब संस्कार अनित्य प्रतीत होते हैं। तब वह देशों से विरक्त होता है और संमार में उसकी आसक्ति नहीं रहती। यह विशुद्धि का मार्ग है। यम्हि मानं च पञ्जा च स वे निवानन्तिके। [धम्मपद, ३७२] अर्थात् जिसने ध्यानों का लाभ किया है और जो प्रज्ञावान् है वह निर्वाण के समीप है। सब्बदा सीलसंपन्नो पञ्जावा सुसमाहितो । भारद्धविरियो पहित्ततो श्रोघं तरति दुत्तरन्ति ।। [ संयुत्त-निकाय, श५३] अर्थात् जो सदा शील-सम्पन्न है, जो प्रशावान् है, जो सुन्छु प्रकार से समाहित अर्थात् समाधिस्थ है, जो अशुभ के नाश के लिए और शुभ की प्राप्ति के लिए, उद्योग करता है और जो दृढ संकल्प वाला है, वह संसाररूपी दुस्तर श्रोध को पार करता है। 1. विपश्यना उस विशिष्ट ज्ञान और दर्शन को करते है जिनके द्वारा धर्मों की अनिस्यता, पुःखता और पनारमता प्रगट होती है । “अनिचादिवसेन विविधाकारेन पस्सनीति विपस्सना" [अभिधम्मत्वसंगह टीका] "विपस्सनाति सहारपरिग्गाहकमार्थ । [चंगुत्तर. निकायहरूषा, वाकबगा, सुत्त ३] | "सहारे मनिज्मतो दुल्सको अगत्ततो विपस्सति" विमुदि-मग्गो, १...]