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वक्तव्य

'बौद्धधर्म-दर्शन' और उसके यशस्वी लेखक के सम्बन्ध में कई अधिकारी विद्वानों ने पर्याप्त रीति से लिखा है, जो प्रस्तुत ग्रन्थ में यथास्थान प्रकाशित है। अब उससे अधिक कुछ लिखना अनावश्यक है।

सन् १९५४ ई. में, २१ अप्रैल (बुधवार) को, श्राचार्य नरेन्द्रदेवनी ने बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् के तृतीय वार्षिकोत्सव का सभापतित्व किया था। सभापति-पद से भाषण करते हुए उन्होंने निम्नांक्ति मन्तव्य प्रकट किये थे-

"सम्प्रदायवाद इस युग में पनप नहीं सकता। हमारे राष्ट्रीय साहित्य को राष्ट्रीयता और जनतंत्र की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करना पड़ेगा। किन्तु उसमें यह सामर्थ्य तभी पा सकता है जब हिन्दी-भाषाभाषियों की चिन्ताधारा उदार और व्यापक हो और जब हिन्दी-साहित्य भारत के विभिन्न साहित्यों को अपने में आत्मसात् करे।

"यह सत्य है कि सिनेमा, रेडियो और टेलीविजन ने साहित्य के क्षेत्र पर आक्रमण कर उनके महत्त्व को घटा दिया है। विज्ञान और टेकनालोजी के आधिपत्य ने भी साहित्य की मर्यादा को घटाया है। किन्तु यह अशंदिग्ध है कि साहित्य आज भी जो कार्य कर सकता है, वह कार्य कोई दूसरी प्रक्रिया नहीं कर सकती।

"अतीत के अनुभव के आलोक में वर्तमान को देखना तथा श्राज के समान में जो शक्तियां काम कर रही हैं उनको समझना तथा मानव-समाज के हित की दृष्टि से उनका संचालन करना एक सच्चे कलाकार का काम है।

"भारत के विभिन्न साहित्यों की प्रागधना कर, उनकी उत्कृष्टता को हिन्दी में उत्पन्न कर, हिन्दी-साहित्य को सचमुच राष्ट्रीय और सफल राष्ट्र के विकास का एक समर्थ उपकरण बनना हमारा-आपका काम है। इस दायित्व को हम दूसरों पर नहीं छोड़ सकते।"

उनके इन मन्तव्यों के प्रकाश में इस ग्रंथ का अवलोकन करने से प्रतीत होगा कि उन्होंने भारतीय बौद्ध साहित्य को कहाँ तक आत्मसात् करके एक सच्चे कलाकार के दायित्व का निर्वाह किया है। बौद्धधर्म और बौद्धदर्शन का मार्मिक विवेचन करने में उन्होंने जो अभूतपूर्व पाण्डित्य और कौशल प्रदर्शित किया है, उससे यह अन्य निस्सन्देह हिन्दी-साहित्य में अपने ढंग का अकेल। प्रमाणित होकर रहेगा।

अत्यन्त दुःख का विषय है कि यह ग्रन्थ प्राचार्यजी के जीवन काल में प्रकाशित न हो सका। ग्रन्थ की छपाई के समाप्त होते ही उनकी इहलोक-लीला समाप्त हो