पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३०

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बौ-धर्म-दर्शन ४२ अव्यवस्थित-चित्तता और कौकृत्य 'खेद पश्चात्ताप को कहते हैं। सुख औद्धत्य-कौकृत्य का प्रति- पक्ष है। विचिकित्सा संशय को कहते हैं । विचार विचिकित्सा का प्रतिपन है । विषयों में लीन होने के कारण समाधि में चित्त की प्रतिष्ठा नहीं होती। हिंसाभाव से अभिभूत चित्त की निरन्तर प्रवृत्ति नहीं होती। स्त्यान-मिद्ध से अभिभूत चित्त अकर्मण्य होता है । चित्त के अनवस्थित होने से और खेद से शान्ति नहीं मिलती और चित्त भ्रान्त रहता है । विनिकि सा से उपहत चित्त ध्यान का लाभ करानेवाले मार्ग में प्रारोहण नहीं करता। इसलिए इन विघ्नों का नाश करना चाहिये । नीवरणों के नाश से ध्यान का लाभ और ध्यान के पाँच अङ्ग' वितर्क, विचार, प्रोति, सुख और एकाग्रता का प्रादुर्भाव होता है । वितर्क अालम्बन में चित्त का आरोप करता है । अालम्बन के पाम चित्त का आनयन 'वितर्क कहलाता है । पालम्बन का यह स्थूल श्राभोग है। वितर्क की प्रथमोत्पत्ति के ममय चित्त का परिस्पन्दन होता है। वितर्क विचार का पूर्वगामी है । विचार सूक्ष्म है । विचार की वृत्ति शान्त होती है और इसमें चित्त की अधिक परिस्पन्दन नहीं होता। जब प्रीति उत्पन्न होती है तब सबसे पहिले शरीर में रोमाञ्च होता है। धीरे-धीरे यह प्रीति बारंबार शरीर को अवक्रान्त करती है । जब प्रीति का बलवान् उद्वेग होता है तो प्रीति शरीर को ऊर्ध्व उत्तिप्त कर श्राकाश-लवन के लिए समर्थ करनी है, धीरे-धीरे सकल शरीर प्रीति से सर्वरूपेण व्याप्त हो जाता है, मानों पर्वत गुहा से एक महान् जलप्रपात परिस्फुट हो तीव्र वेग से प्रवाहित हो रहा है। प्रीति के परिपाक से काय-प्रश्रब्धि और चित्त-प्रब्धि होती है। प्रश्रब्धि के परिपाक से काय और चित्त-सुख होता है। सुख के परिपाक से क्षणिक, उपचार और अर्पणा' इस -योग दर्शन के निम्नलिखित सूत्र से तुलना कीजिये :- वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमासंप्रशातः । [समाधिपाद । १.] यानन्द द्वाद है। यही प्रीति है। अस्मिता सुख १-विवचित्तस्यासम्बने स्थूल आभोगः । सूक्ष्मो विधारः । [ योगदर्शन, समाधिपाद । १७ पर व्यास भाष्य ] | वितर्कविचाराबौदार्यसूक्ष्मते [ अभिधर्मकोश, २१३३] । पोहारिक्वेन । सुख्खुमढेन । [विसुद्धिमग्गो, पृ० १४२] ३-प्रश्रधि सम्बोधि के सात प्रमों में से एक है। प्रामोद्य और प्रीति के साथ इसका प्रयोग प्रायः देखा जाता है। प्रश्रधि शान्ति को कहते हैं। 2-उपचार अर्पणासमाधि के प्रकार हैं। जिस प्रकार प्राम आदि का समीपवर्ती प्रदेश ग्रामोपचार कहलाता है उसी प्रकार भर्पणा के समीप का स्थान उपचार-समाधि महकाताहै। उपचार-समाधि में ध्यान अल्प प्रमाण का होता है और पिस पालम्बन में बोई काक तक माबद्ध रहता है। फिर भगाह में अवतरण करता है। उपचार-भूमि में भीषरणों का नाश होता है पर मो का प्रादुर्भाव नहीं होता। जब अर्पणा-(एकान चिसे मालम्पनं अवति) समाधि का उत्पाद होता है सब ध्यान के पाँच अंग सुख हो जाते हैं। मर्पया ध्यान की प्रतिक्षाम-भूमि है। के स्थान 1