पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३१

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पंचम अध्याय ४३ त्रिविध समाधि का परिपूरण होता है । इष्ट अालम्बन के प्रनिलाम से जो तुष्टि होती है उसे प्रीति कहते हैं । प्रतिलब्ध रस के अनुभव को सुन्त्र कहते हैं । जहाँ प्रीति है वहाँ सुख है पर जहाँ सुख है वहाँ नियम से प्रीति नहीं है। प्रथम ध्यान में उक्त पाँच अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है। धीरे-धीरे अङ्गों का अतिक्रमण होता है और अन्तिम ध्यान में समाधि उपेक्षा सहित होती है । लौकिक समाधि के द्वाग ऋद्धि-बल की प्राप्ति होती है पर निर्वाण की प्राप्ति के लिए विपश्यना के मार्ग का अनुसरण करना यावश्यक है। निर्वाण के प्रार्थी को शमथ की भावना के उपरान्त विपश्यना की वृद्धि करनी पड़ती है और तभी अर्हत्यद में प्रतिष्ठा होती है अन्यथा नहीं। जिसको लौकिक समाधि अभीष्ट हो उसको सुपरिशुद्ध शील में प्रतिष्ठित हो सबसे पहले विघ्नों का (=पालि, 'पलिबोधः ) नाश करना चाहिये । श्रावास, कुल, लाम, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, अावाध, ग्रन्थ और ऋद्धि-यह दश 'पलिबोध' कहलाते हैं । जो भिक्षु अभी नया नया किमी काम उत्सुकता रखता है या बहुविध सामग्री का संग्रह करता है या जिग्गका चित्त किसी दूसरे कारणवश अपने श्रावाम में प्रतिबद्ध है आनाम उसके लिए अन्तरराय ( = विघ्न ) है । कुल से तात्पर्य ज्ञाति-कुल या सेवक के कुल से है । साधारणयता दोनों विघ्नकारी हैं। अपने तथा सेवक के कुल से विशेष संसर्ग होने से भावना में विघ्न उपस्थित होता है। कुछ ऐसे भिन्न होते हैं जो कुल के मनुष्यों के बिना धर्म-श्रवण के लिए भी पास के विहार में नहीं जाते। वह उन श्रद्धालु उपासकों के सुख में सुखी और दुःख में दुबी होते हैं जिनसे उनका लाभ-सत्कार मिलता है । ऐसे भिन्तुओं के लिए. कुल अन्तराय है; दूसरों के लिए नहीं । 'जाभा चार प्रत्ययों को कहते हैं। प्रत्यय ( पालिरूप रचय ) यह है-चीवर, पिण्डपात, शयनामन और ग्लानप्रत्ययभेषज | भिक्षु को इन चार वस्तुओं की आवश्यकता रहती है। कभी कभी यह भी अन्तराय हो जाते हैं । पुण्यवान् मिनु का लाभ-सत्कार प्रचुर परिमाण में होता है । उसको सदा लोग घेरे रहते हैं। जगह जगह से उसको निमन्त्रण आता है । उसको निरन्तर दान का अनुमोदन करना पड़ता है और रातात्रों को धर्म का उपदेश देना पड़ता है । श्रमण-धर्म के लिए उसको अवकाश नहीं मिलता। ऐसे भिन्तु को ऐसे स्थान में जाकर रहना चाहिये जहाँ उसे कोई नहीं जानता हो और जहाँ वह एकान्तसेवी हो सके। 'गण' में रहने से लोग उससे अनेक प्रकार के प्रश्न पूलने हैं या उसके पास पाठ के लिए आते हैं। इस प्रकार श्रमण-धर्म के लिए अवकाश नहीं मिलता। इस अन्तराय का उपच्छेद इस प्रकार होना चाहिये । यदि थोड़ा ही पाठ रह गया हो तो उसे समाप्त कर अरण्य में प्रवेश करना चाहिये यदि पाठ बहुत बाकी हो तो अपने शिष्यों को समीपवर्ती किसी दूसरे गणवाचक के सपुर्द करना चाहिये। यदि दूसरा गणवाचक पास में न मिले तो शिष्यों से कुट्टी ले श्रमण-धर्म में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। 'कर्म का अर्थ है 'नवकमा अर्थात् विहार का अभिसंस्कार | जो नवकर्म कराता है उसे मजदूरों के कार्य का निरीक्षण करना पड़ता है। उसके लिए, सर्वदा अन्तराय है । इस