पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३२

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99 बौद्ध-धर्म-दर्शन अन्तराय का नाश करना चाहिये। यदि थोड़ा ही काम अवशिष्ट रह गया हो तो काम को समास कर श्रमण-धर्म में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। यदि अधिक काम बाकी हो तो संघमार- हारक भिक्षुओं के सपुर्द करना चाहिये । यदि ऐसा कोई प्रबन्ध न हो सके तो संघ का परित्याग कर अन्यत्र चला जाना चाहिये । मार्ग-गमन भी कभी कभी अन्तराय होता है। जिसे कहीं किसी की प्रव्रज्या के लिए जाना है या जिसे कहीं से लाभ-सत्कार मिलना है। यदि वह अपनी इच्छा को पूरा किये बिना अपने चित्त को स्थिर नहीं रख सकता तो उससे श्रमण-धर्म सम्यक् रीति से सम्पादित नहीं हो सकता ! इसलिए उसे गन्तव्य स्थान पर जाकर अपना मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। तदनन्तर श्रमण-धर्म में उत्साह के साथ प्रवृत्त होना चाहिये । जाति भी कभी कभी अन्तराय हो जाते हैं । विहार में प्राचार्य, उपाध्याय, अन्तेवासिक, समानोपाध्यायक और समानाचार्यक तथा गृह में माता, पिता, भ्राता श्रादि ज्ञाति होते हैं | जब यह बीमार पड़ते हैं तब यह अन्तराय होते हैं क्योंकि भिन्नु को इनकी सेवा शुश्रूया करनी पड़ती है । उपाध्याय, प्रव्रज्याचार्य, उपसम्पदाचार्य, ऐसे अन्तेवासिक जिनकी उसने प्रव्रज्या या उपसम्पदा की है, तथा एक ही उपाध्याय के अन्तेवासी के बीमार पड़ने पर उनकी सेवा उम समय तक करना उसका कर्तव्य है जब तक वह निरोग न हो । निश्रयान्चार्य, उद्देशाचार्य आदि की सेवा अध्ययन काल में ही कर्तव्य | माता-पिता उपाध्याय के समान हैं। यदि उनके पास औषध न हो तो अपने पास से देना चाहिये; यदि अपने पास भी न हो तो भिक्षा मांगकर देना चाहिये। आराध भी अन्तराय है । यदि भिक्षु को कोई रोग हुश्रा तो श्रमणधर्म के पालन में अन्तराय होता है। चिकित्सा द्वारा रोग का उपशम करने से यह अन्तराय नष्ट होता है। यदि कुछ दिनों तक चिकित्सा करने से भी रोग शान्त न हो तो उसे यह कहकर ग्रामगीं करनी चाहिये कि मैं तेरा न दास हूँ, न भृत्य, तेरा पोपण कर मैने इम अनादि अनन्त समार-मार्ग दुःख ही प्राप्त किया है और श्रमण धर्म में प्रवृत्त हो बाना चाहिये । ग्रन्थ भी अन्तराय होता है। जो सदा स्वाध्याय में व्याप्त रहता है उसी के लिए ग्रन्थ अन्तराय है; दूसरों के लिए नहीं । ऋद्धि से पृथग्जन की वृद्धि से अभिप्राय है । यह अद्धि विपश्यना (प्रज्ञा ) में अन्तराय है, समाधि में नहीं; क्योंकि अब समाधि की प्राप्ति होती है तब ऋद्धि-बल की प्राप्ति होती है । इसलिए जो विपश्यना का अर्थी है उसे ऋछि अन्तराय का उप-छेद करना चाहिये किन्तु जो समाधि का लाभी होना चाहता है उसे नौ अन्तरायों का नाश करना चाहिये । इन विश्नों का उपच्छेद कर भिक्षु को 'कर्मस्थान' ग्रहण के लिए कल्याण-मित्र के पान जाना चाहिये । 'कमस्थान' योग के साधन को कहते हैं। योगानुयोग ही कर्म है। इसका स्थान अर्यात् निष्पत्ति हेतुः कर्मस्थान है। इसी लिए कर्मस्थान उसे कहते हैं जिसके द्वारा योग भावना की निष्पत्ति होती है। कर्मस्थान प्रर्यान् समाधि के साधन चालीस है। इन