पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३५

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पंचम अध्याय यदि जल प्राचार्य द्वारा ग्राहृत हो तो वह पादनालन के लिए अनुपयुक्त होगा। यदि आचार्य कहें कि बल दूसरे द्वारा लाया गया है तो उसको ऐसे स्थान में बैठकर पैर धोना चाहिये जहाँ प्राचार्य उसे न देख सकें। यदि प्राचार्य तेल दें तो उठकर दोनों हाथों से श्रादरपूर्वक उसे ग्रहण करना चाहिये । पर पहिले पैरों में न मलना चाहिये, क्योंकि यदि प्राचार्य के गात्रा- भ्यञ्जन के लिए, वह तेल हो तो पैर में मलने के लिए अनुपयुक्त होगा। इसलिए पहिले सिर और कन्धों में तेल लगाना चाहिये । जब प्राचार्य कहें कि सब अङ्गों में लगाने का यह तेल है तो थोड़ा सिर में लगाकर पैर में लगाना चाहिये । पहिले ही दिन कर्मस्थान की याचना न करनी चाहिये । दूमरे दिन से प्राचार्य की सेवा करनी चाहिये । जिस प्रकार अन्तेवासी श्राचार्य की सेवा करता है उसी प्रकार भिक्षु को कर्मस्थानदायक की सेवा करनी चाहिये । समय से उठकर श्राचार्य को दन्तकाष्ठ देना चाहिये, मुँह धोने के लिए तथा स्नान के लिए जल देना चाहिये। और बर्तन साफ करके प्रातराश के लिए, यवागू देना चाहिये । इसी प्रकार अन्य जो कर्तव्य निर्दिष्ट हैं उनको पूरा करना चाहिये । इस प्रकार अपनी सेवा से प्राचार्य को प्रसन्न कर जब वह आने का कारण पूछे तब बताना चाहिये; यदि प्राचार्य श्राने का कारण न पूछे और सेवा लें तो एक दिन अवसर पाकर पाने का कारण स्वयं बताना चाहिये। यदि वह प्रातःकाल बुलावें तो प्रातःकाल जाना चाहिये । यदि उम समय किसी रोग की बाधा हो तो निवेदन कर दूसरा उपयुक्त समय नियत कराना चाहिये। याचना के पूर्व प्राचार्य के समीप श्रात्मभाव का विसर्जन करना चाहिये । प्राचार्य की प्राज्ञा में सदा रहना चाहिये; स्वेच्छाचारी न होना चाहिये; यदि प्राचार्य बुरा-भला कहें तो कोप नहीं करना चाहिये। यदि भिन्तु प्राचार्य के समीप श्रात्मभाव का परित्याग नहीं करता और बिना पूछे जहाँ कहीं इच्छा होती है चला जाता है तो प्राचार्य रुष्ट होकर धर्म का उपदेश नहीं करता और गम्भीर कर्मस्थान-ग्रन्थ की शिक्षा नहीं देता । इस प्रकार भित्तु शासन में प्रतिष्ठा नहीं पाता। इमके विपरीत यदि वह प्राचार्य के वशवती और अधीन रहता है तो शासन में उसकी वृद्धि होगी है। भिन्नु को अलोभादि छ: सम्पन्न अध्याशयों से भी संयुक्त होना चाहिये। सम्यक् सम्बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध श्रादि जिस किसी ने विशेषता प्राप्त की है उसने इन्हीं छः मम्पन्न अध्याशयों द्वारा प्राप्त की है । 'अध्याशय' अभिनिवेश को कहते हैं। 'अध्याशय दो प्रकार के हैं ---विपन्न, सम्पन्न । रुष्यता आदि जो मिथ्याभिनिवेश-निश्रित हैं विपन्न अध्याशय कहलाते हैं । सम्पन्न अध्याशय दो प्रकार के हैं- वर्त अर्थात् संसारनिश्रित और विवर्तनिश्रित । यहाँ विवर्तनिश्रित अभ्याशय से अभिप्राय है । सम्पन्न अध्याशय छः श्राकार के हैं—अलोभ, अद्वेष, अमोह, नैष्कम्य, प्रविवेक और निस्सरए। इन छः अध्याशयों से बोधि का परिपाक होता है। इसलिए, इनका श्रासेवन श्रावश्यकीय है। इसके अतिरिक्त योगी का संकल्प समाधि तथा निर्वास के लाभ के लिए हद होना चाहिये । जत्र विशेष गुणों से सम्पन्न योगा कर्मस्थान की याचना करता है तो श्राचार्य चर्या की परीक्षा करता है। जो प्राचार्य परचित्त-शानलामी है वह चित्ताचार का सूक्ष्म निरीक्षण कर आप ही आप योगी के चरित का परिचय प्राप्त कर लेता है पर जो इस ऋद्धि-बल से समन्वागत नहीं है वह विविध प्रश्नों द्वारा योगी की चर्या जानने की चेष्टा करता है।