पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३६

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बोड-धर्म-दर्शन श्राचार्य योगी से पूछता है कि वह कौन से धर्म है जिनका तुम प्रायः आचरण करते हो ? क्या करने से तुम सुखी होते हो ? किस कर्मस्थान में तुम्हारा चित्त लगता है ? इस प्रकार चर्या का विनिश्चय कर श्राचार्य चर्या के अनुकूल कर्मस्थान का वर्णन करता है। योगी कर्म- स्थान का अर्थ और अभिप्राय भली प्रकार जानने की चेष्टा करता है। वह प्राचार्य के व्याख्यान को मनोयोग देकर श्रादरपूर्वक सुनता है ऐसे ही योगी का कर्मस्थान सुगृहीत होता है। चर्या के कितने प्रभेद है, किस चर्या का क्या निदान है, कैसे जाना जाय कि अमुक मनुष्य अमुक चरितवाला है और किस चरित के लिए कौन से शयनासन श्रादि उपयुक्त है, इन विषयों पर यहां विस्तार से विचार किया जायगा। चर्या का अर्थ है प्रकृति, अन्य धर्मों की अपेक्षा किसी विशेष धर्म की उत्सन्नता अर्थात् अधिकता। चर्या छ है--रागचर्या, द्वेषचर्या, मोहचर्या, श्रद्धाचर्या, बुद्धिचर्या और वितर्कवर्या । सन्तान में जब अधिक भाव से राग की प्रवृत्ति होती है तब रागचर्या कही जाती है। कुछ लोग सम्प्रयोग और सन्निपात वश रागादि की चार और चर्याय मानते हैं जैसे राग-मोहचर्या, राग-द्वेपनर्या, द्वेष-मोहचर्या और राग-द्वेष-मोहचर्या । इसी प्रकार श्रद्धादि चर्यात्रों के परस्पर सम्प्रयोग और सन्निपातयश श्रद्धा-बुद्धिचर्या, श्रद्धा-वितर्क- चर्या, बुद्धि-वितर्कचर्या, श्रद्धा-बुद्धि-वितर्कचर्या इन चार अपर चर्यानों को भी मानते हैं । इस प्रकार इनके मत में कुल चौदह चाँयें हैं। यदि हम रागादि का श्राद्धादि चर्यायों से सम्प्रयोग करें तो अनेक चर्यायें होती हैं। इस प्रकार चर्यों की तिरमट और इससे भी अधिक संख्या हो सकती है । इसलिए. संक्षेप से छः ही मूलचर्या जानना चहिये । मूलचर्यानों के प्रभेद से छः प्रकार के पुद्गल होते हैं--रागारन, उपचरित, मोहचरित, श्रद्धारित, बुद्धिचरित, वितर्क चरित । जिस समय रागचरित पुरुष की कुशल में अर्थात् शुभकर्मों में प्रवृत्ति होती है उस समय श्रदा बलवती होती है। क्योंकि श्रद्धा गुण राग-गुण का समीपवर्ती है । जिस प्रकार अकुशल पक्ष में राग की स्निग्धता और अरुक्षता पायी जाती है उमी प्रकार कुशलपन में श्रद्धा की स्निग्धता और अरुतता पायी जाती है। श्रद्धा प्रसाद गुणवश स्निग्ध है और राग रक्षन गुणवश लिग्ध है । यथा राग काम्य वस्तुओं का पर्येषण करता है उसी प्रकार श्रद्धा शीलादि गुणों का पर्यषण करती है। यथा राग अहित का परित्याग नहीं करता उसी प्रकार श्रद्धा हित का परित्याग नहीं करती। इस प्रकार हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हुए भी रागचरित और श्रद्धा चरित की सभागता है । इसी तरह द्वेषचरित और बुद्धिचरित की तथा मोहचरित और वितर्कचरित की सभागता है। जिस समय पचरित पुरुष की कुशल में प्रवृत्ति होती है उस समय प्रज्ञा बलवती होती है क्योंकि प्रशा-गुण द्वेष का समीपवती है। जिस प्रकार अकुशल पक्ष में द्वेष व्यापादवश लेहरहित होता है, आलम्बन में उसकी आसक्ति नहीं होती, उसी प्रकार यथाभूत स्वभाव के अवबोध के कारण कुशलपक्ष में प्रज्ञा की आसक्ति नहीं होती। यथा द्वेष अभूत दोष की भी पर्येषया करता है उसी प्रकार प्रशा यथाभूत दोष का प्रविचय करती है। यथा द्वेषचरित पुरुप सल्लों का परित्याग करता है उसी प्रकार बुद्धिचरित पुरुष संस्कारों का परित्याग करता है । इसलिए स्वभाव की विभिनता होते हुए भी द्वेषचरित और बुद्धिचरित की सभागता है । जब मोहचरित