पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३७

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पंचम अध्याय पुरुष कुशल कर्मों के उत्पाद के लिए यत्नवान् होता है तो नाना प्रकार के वितर्क और मिथ्या संकल्प उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वितर्क-गुण मोह-गुण का समीपवर्ती है। जिस प्रकार ब्याकुलता के कारण मोह अनवस्थित है उसी प्रकार नाना प्रकार के विकल्प-परिकल्प के कारण क्तिक अनवस्थित है। जिस प्रकार मोह चंचल है उसी प्रकार वितर्क में चपलता है। इस प्रकार स्वभाव की विभिन्नता होते हुए भी मोहचरित और वितकंचरित की सभागता है । कुछ लोग इन छः चर्यायों के अतिरिक्त तृणा, मान और दृष्टि को भी चर्या में परि- गणित कहते हैं । पर तृप्रणा और मान गग के अन्तर्गत हैं और दृष्टि मोह के अन्तर्गत है। इन छ: चर्याओं का क्या निदान है ? कुछ का कहना है कि पूर्व जन्मों का आचरण और धातु-दोष की उत्सन्नता पहली तीन चर्यायों का नियामक है । इनका कहना है कि जिसने पूर्वजन्मों में अनेक शुभ कर्म किये हैं और जो इष्ट-प्रयोग-बहुल रहा है या जो स्वर्ग से च्युत हो इस लोक में जन्म लेता है वह गगरिन होता है । जिसने पूर्वजन्मों में छेदन, वध, बन्धन अादि अनेक वैश्कर्म किये हैं या जो निग्य या नाग-योनि मे न्युन हो इस लोक में उत्पन्न होता है वह द्वेषचरित होता है और जिमने पूर्व जन्मों में अधिक परिमाण निरन्तर मद्यपान किया है और जो श्रुतविहीन है या जो निकृष्ट पशुयोनि से न्युन हो इस लोक में उत्पन्न होता है, वह मोहचरित होता है। पृथिवी तथा जलधातु की उत्पन्नता से पुद्गल मोहचरित होता है। तेज और वायुधातु की उत्सन्नता मे पुद्गल पचरित होना है। चारों धातुओं के समान भाग में रहने से पुद्गल रागचरित होता है। दोनों में श्लेष्म की अधिकता से पुद्गल रागचरित या मोहचरित होता है; बात की अधिकता से मोदन्ति या रागचरित होता है । इन वचनों में श्रद्धाचर्या आदि में से एक का भी निदान नहीं कहा गया है। टो-नियम में केवल राग और मोह का ही निदर्शन किया गया है। इनमें भी पूर्वापरविरोध देखा जाता है। इसी प्रकार धातुओं में उक्त पद्धति से उत्पन्नता का नियम नहीं पाया जाता । पूर्वाचरण के अाधार पर जो चर्या का नियमन बताया गया है उसमें भी ऐमा नहीं है कि सर केवल रागचरित हो या द्वेष-मोह-चरित हो । इसलिए यह य-चन अपरिच्छिन्न हैं। अर्थकथानों के मतानुमार चर्या- विनिश्चय 'उस्मद कित्तन' में इस प्रकार वर्णित है । पूर्व-जन्मों में प्रवृत्त लोभ-श्रलोभ, द्वाप- श्रद्वेष, मोह-श्रमोह, हेतुबश प्रतिनियत रूप में सत्त्वों में लोभ आदि की अधिकता पायी जाती है। कर्म करने के समय जिस मनुष्य में लोभ बलवान होता है और अलोभ मन्द होता है, अपि और अमोह बलवान होते हैं और द्रप-मोह मन्द होते हैं, उसका मन्द अलोभ लोभ को अभिभूत नहीं कर सकता पर श्रद्धप-अमोह, यदवान होने के कारण, द्रुप मोह को अभिभूत करते हैं । इसलिए जब वह मनुष्य इन कर्मों के यश प्रनिन्धि का लाभ करता है तो वह लुब्ध, सुखशील, क्रोधरहित और प्रज्ञावान् होता है। कर्म करने के समय जिमके लोभ-द्वप बलवान् होते हैं, अलोभ-अद्वैप मन्द होते हैं, अमोह बलवान् हो: है और मोह मन्द होता है वह लुन्ध और दुष्ट पर प्रज्ञावान् होता है । कर्म करने के समय जिसके लोभ मोह-अप क्लवान होते हैं और इतर मन्द होते हैं वह लुब्ध, मन्द बुद्धिवाला, सुखशील और क्रोधरहित होता है । धर्म करने के समय जिमके लोभ द्वीप मोह बनवान होते हैं, अलोभादि मन्द होते हैं, वह लुब्ध, ७