पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३९

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पंचम अध्याय ५१ चरित पुरुष झा कर सोता है । उठाये जाने पर हुकार करते हुए मन्दभाव से उठता है। श्रद्धाचरितादि पुरुष की वृत्ति रागचरितादि पुरुष के समान होती है, क्योंकि इनकी सभागता है। कृत्य--कृत्य से भी चर्या का निश्चय होता है। जैसे झाड़ देते समय रागचरित पुरुष बिना जल्दबाजी के भाई को अच्छी तरह पकड़ कर समान रूप से भाड़, देता है और स्थान को अच्छी तरह साफ करता है। पचरित पुस्प झाइको कसकर पकड़ता है और जल्दी जल्दी दोनों ओर बालू, उड़ाता हुआ साफ करता है और स्थान भी साफ नहीं होता । मोह- को शिथिलता के साथ पकड़ कर इधर-उधर चलाता है; स्थान भी साफ नहीं होता । इसी प्रकार अन्य क्रियाओं के संबन्ध में भी समझना चाहिये। रागरित पुरुष कार्य में कुशल होता है; सुन्दर तथा सामरूप से सावधानता के साथ कार्य करता है। पचरित पुरुष का कार्य स्थिर, स्तम्भ और विषम होता है और मोहचरित पुरुष कार्य में निपुण, व्याकुल, विषम और अयथार्थ होता है । सभागता होने के कारण श्रद्धाारतादि पुरुषों की वृत्ति भी इसी प्रकार की होती है। भोजन-रागचरित पुरुष को स्निग्ध और मधुर भोजन प्रिय होता है; वह धीरे-धीरे विविध रमों का आस्वाद लेते हुए भोजन करता है; अच्छा भोजन करके उसको प्रमन्नता होती है। पचरित पुरुष को रूखा और अाम्ल भोजन प्रिय होता है; वह बिना रसों का स्वाद लिए, जल्दी-जल्दी भोजन करता है; यदि वह कोई बुरे स्वाद का पदार्थ खाता है तो उसे अप्रसन्नता होती है । मोहचरित पुरुष की रुचि अनियत होती है; वह विदितचित्त पुरुष की तरह नाना प्रकार के वितर्क करते हुए भोजन करता है । इसी प्रकार श्रद्धाचरितादि पुरुष की वृत्ति होती है। दर्शन - रागचरित पुरुप थोड़ा भी मनोरम रूप देखकर विस्मितभाव से चिरकाल तक उसका अवलोकन करता रहता है; थोड़ा भी गुण हो तो वह उनमें अनुरक्त हो जाता है; वह यथार्थ दोष का भी ग्रहण नहीं करता । उस मनोरम रूप के पास से हटने की उसकी इच्छा नहीं होती। द्वेषचरित पुरुष थोड़ा भी अमनोरम रूप देखकर खेद को प्राप्त होता है । वह उसकी ओर देर तक देख नहीं सकता । थोड़ा भी दोर उसकी निगाह से बनकर नहीं जा सकता । यथार्थ गुण का भी वह ग्रहण नहीं करता। मोहचरित पुरुष जब कोई रूप देखता है तो वह उसके विषय में उपेक्षाभाव रखता है; दूसरों को निन्दा करते देखकर निन्दा श्रीर प्रशंसा करते देखकर प्रशंसा करता है । श्रद्धाचरितादि पुरुषों की वृत्ति भी इसी प्रकार की होती है। धर्म-प्रवृति--रागचरित पुरुष में माया, शाठ्य, मान, पापेच्छा, असन्तोप, चपलता, लोभ, श्रृङ्गारभाव श्रादि धमों की बहुलता होती है। द्वेषचरित पुरु: में क्रोध, द्वेष ईया, मात्सर्य, दम्भ आदि धर्मों की बहुलता होती है । मोहचरित पुरुष में विचिकित्सा, श्रालस्य, चित्तविक्षेप, चित्त की अकर्मण्यता, पश्चात्ताप, प्रतिनिविष्ठता, दृढ़ग्राह अादि धर्मों की बहुलता होती है। श्रद्धाचरित पुरुष का परित्याग निःसङ्ग होता है; वह अायों के दर्शन की तथा सद्धर्म-श्रवण की इच्छा रखता है; उममें प्रीति की बहुलता है, वह शठता और माया से रहित