पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४०

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बौद-धर्म-दर्शन है, उचित स्थान में वह श्रद्धाभाव रखता है। बुद्धिचरित पुरुष स्निग्धभाषी, मितभोजी और कल्याणमित्र होता है । यह स्मृति-संप्रजन्य की रक्षा करता है; सदा जाग्रत रहता है । संसार का दु.ख देखकर उसमें संवेग उत्पन्न होता है और वह उद्योग करता है। वितर्कचरित पुरुष की कुशलधर्मों में अरति होती है; उसका चित्त अनवस्थित होता है; वह बहुभाषी और समाजप्रिय होता है । वह इधर से उधर श्रालंबनों के पीछे दौड़ता है। चर्या की विभावना का उक्त प्रकार पालि और अर्थकथानों में वर्णित नहीं है । यह केवल प्राचार्य बुद्धघोष के मतानुसार कहा गया है। इसलिए इस पर पूर्णरूप से विश्वास नहीं करना त्राहिये । द्वेषचरित पुरुप भी यदि प्रमाद से रहित हो उद्योग करे तो रामचरित पुरुष की गति अादि का अनुकरण कर सकता है। जो पुरुष संसृष्ट चरित का है उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की गति आदि नहीं घटती; किन्तु जो प्रकार अर्थकथानों में वर्णित है उसका साररूप से ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार आचार्य योगी की चर्या को जान कर निश्चय करता है कि यह पुरुष रागचरित है या द्वेष-मोह-चरित है । किस चरित के पुरुष के लिए क्या उपयुक्त है ? अत्र इस प्रश्न पर हम विचार करेंगे। रामचरित पुरुष को तृणकुटी में, पर्णशाला में, एक शोर अयनत पर्वतपाद के अधोभाग में या वेदिका से घिरे हुए अपरिशुद्ध भूमितल पर निवाम करना चाहिये । उसका आवास रज से भाकीर्ण, छिन्न-भिन्न, अति उच्च या अति नीच, अपरिशुद्ध, चमगादड़ों से परिपूर्ण छायोदकरहित, मिह व्याघ्रादि के भय से युक्त, देखने में विरूप और दुर्वर्ण होना चाहिए। ऐमा अावास रागचरित पुरुष के उपयुक्त है। रागचरित पुरुष के लिए ऐसा चीवर उपयुक्त होगा जो किनारों पर फटा हो, जिमके धागे चारों ओर से लटकते हो, जो देखने में जालाकार पृ" के समान हो, जो छूने में खुरखुरा और देखने में भद्दा, मैला और भारी हो । उसका पात्र मृत्तिका का या लोहे का होना चाहिये । देखने में कासूरत और भारी हो, कपाल की तरह, जिसको देखकर घृणा उत्पन्न हो । उसका भिक्षाचर्या का मार्ग विषम, अमनोरम, और ग्राम से दूर होना चाहिये । भिक्षाचार के लिए उसे ऐसे में जाना चाहिये जहाँ के लोग उसकी उपेक्षा करें, जहां एक कुल से भी जब उसे भिक्षा न मिले तब लोग आसन-शाला में बुलाकर उसे यवागू भोजन के लिए. दै और बिना पूछे चलते बनें । परोसनेवाले भी दास या भृत्य हों, जिनके वस्त्र मैले और बदबूदार हो, जो देखने में दुर्वर्ण हों और जो बेमन से परोसता हो। उसका भोजन रूक्ष, दुर्वर्ण और नीरम होना चाहिये । भोजन के लिए सावाँ, कोदो, चावल के कण, सड़ा हुआ तक और जीर्ण शाक का सूप होना चाहिये। उसका ईर्यापथ स्थान या चंक्रमण होना चाहिये अर्थात् उसे या तो खड़े रहना चाहिये या टहलना चाहिये । नीलादि वर्ण-कसिणों में जिस अालम्पन का वर्ण अपरिशुद्ध हो वह उसके उपयुक्त है । मिण (संस्कृत-कृत - समस्त); कसिण इस हैं। ये ध्यान के काम में सहायक