पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४४

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बौद-सम्पर्शन करनी चाहिये । उदाहरण के लिए जो पानापान निमित्त की वृद्धि करता है, वह वातराशि की ही वृद्धि करता है और अवकाश भी परिच्छिन्न होता है। चार ब्रह्म-विहारों के पालम्बन सत्त्व है। इनमें निमित्त की वृद्धि करने से सत्त्व-राशि की ही वृद्धि होती है और उससे कोई उपकार नहीं होता। कोई प्रतिभाग-निमित्त नहीं है जिसकी वृद्धि की जाय । श्रारूप्य आलम्बनों में भी आकाश की वृद्धि नहीं करनी चाहिये; क्योंकि कसिण के अपगम से ही श्रारूप्य की प्राप्ति होती है। विज्ञान और नैवसंज्ञानासंज्ञायतन स्वभाव-धर्म हैं; इस लिए. इनकी वृद्धि संभव नहीं है । शेष की वृद्धि इसलिए नहीं हो सकती; क्योंकि यह अनिमित्त है। बुद्धानुस्मृति श्रादि का श्रालम्बन प्रतिभाग-निमित्त नहीं हैं । इसलिए इनकी वृद्धि नहीं करनी चाहिये। दस कसिण, दस अशुभ, अानापान-स्मृति, कायगतास्मृति; केवल इन बाइस कर्मस्थानों के श्रालम्बन प्रतिभाग-निमित्त होते हैं । शेष प्राट स्मृतियाँ, श्राहार के विषय में प्रतिकूल-संशा और चतुर्धातु-व्यवस्थान, विशनानन्त्यायतन, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन इन बारह कर्मस्थानों के बाल- म्बन स्वभाव-धर्म है । उक्त दस कसिण आदि बाइस कर्मस्थानों के श्रालम्बन निमित्त है । शेन छ-चार ब्रह्म-विचार, श्राकाशानान्त्यायतन और पाकिञ्चन्यायतन के श्रालम्बनों के संबंध में न यही कहा जा सकता है कि वह निमित्त हैं और न यही कहा जा सकता है कि वह स्वभाव-धर्म है। विपुल्बक, लोहितक, पुलुवक, श्रानापान-स्मृति, अपकसिण, तेजकसिण, बायुकमिण और बालोककसिणों में सूर्यादि से बो श्रवभास-मण्डल आता है-इन अाठ कर्मस्थानों के श्रालम्बन चलित हैं; पर प्रतिभाग-निमित्त स्थिर हैं । शेष कर्मस्थानों के पालम्बन स्थिर हैं । मनुष्यों में सब आलम्बनों की प्रवृत्ति होती है । देवताओं में दम अशुभ, कायगता- स्मृति और आहार के विषय में प्रतिकूल-पंज्ञा इन बारह बालम्बनों की प्रवृत्ति नहीं होती। ब्रह्मलोक में बारह उक्त श्रालम्बन तथा आनापान-स्मृति की प्रवृत्ति नहीं होती। अरूप-भव में चार प्रारूपों को छोड़कर किसी अन्य आलम्बन की प्रवृत्ति नहीं होती। वायु-कसिण को छोड़कर बाकी नौ कसिण और दस अशुभ का ग्रहण दृष्टि द्वारा होता है । इस का अर्थ यह है कि पहले चक्षु से बार बार देखने से निमित्त का ग्रहण होता है। कायाता-स्मृति के पालम्बन का ग्रहण दृष्टि-श्रवण से होता है; क्योंकि लक् पञ्च का ग्रहण.. दृष्टि से और शेष का श्रवण से होता है। पानापान-स्मृति स्पर्श से, वायु-कसिण दर्शन-सशं से, शेष अठारह श्रवण से गृहीत होते हैं । भावना के प्रारम्भ में योगी उपेक्षा, ब्रह्म-बिहार और चार प्रारूप्यों का ग्रहण नहीं कर सकता; पर शेष चौंतीस श्रालम्बनों का ग्रहण कर सकता है । श्राकाश-कसिण को छोड़कर शेष नौ कसिण प्रारूप्यों में हेतु है; दश कसिण अभिशा' में हेतु है, पहले तीन ब्रह्म-विहार चतुर्थ ब्रह्म-विहार में हेतु है; नीचे का श्रासाम्य अपर के 1. [धर्मसंग्रह]-"पभिशाः विन्यचक्षुर्दिम्यश्रोनं परचितज्ञानं पूर्वनिवासानुस्मृतिमा वि. मोति"-'पमिक्षा अधिक ज्ञान को कहते हैं।