पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४५

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पंचम अध्याय श्रारूप्य में हेतु है; नवसंज्ञानासंज्ञायतन निरोध-समापत्ति में हेतु है; और सत्र कर्मस्थान सुख. बिहार, विपश्यना और भव-सम्पत्ति में हेतु हैं । रामचरित पुरुष के ग्यारह कर्मस्थान-दस अशुभ और कायगतास्मृति–अनुकूल हैं; द्वेषचरित पुरुप के पाठ कर्मस्थान-- ---चार ब्रह्म-विहार और चार वर्ण-कसिण-अनुकूल हैं; मोह और वितर्क-चरित पुरुष के लिए एक अानापान-स्मृति ही अनुकूल हैं; श्रद्धाचरित पुरुष के लिए पहली छः अनुस्मृतियाँ, बुद्धिचरित पुरुष के लिए. मरण-स्मृति, उपशमानुस्मृति, चतु- धातु-व्यवस्थान और आहार के विषय में प्रतिकुल-संज्ञा यह कर्मस्थान अनुकूल हैं । शेष कसिण और बार बारून्य सब चरित के पुरुषों के लिए अनुकूल हैं। कसिणों में जो तुद्र है वह वितर्क- चरित पुरुष के लिए, और जो अप्रमाण हैं वह मोहचरित पुरुष के अनुकूल है। जिसके लिए जो कर्मस्थान अत्यन्त उपयुक्त है उसका उल्लेग्य ऊपर किया गया है। ऐसी कोई कुशलभावना नहीं है जिसमें रागादि का परित्याग न हो और जो श्रद्धादि की उपकी न हो । भगवान् मेघिय-मुत्त में कहते हैं कि इन चार धर्मा की भावना करनी चाहिये-राग के नाश के लिए अशुभ-भावना, व्यापाद के नाश के लिए मैत्री-भावना, वितर्क के उपच्छेद के लिए. पाना की भावना और अहङ्कार-ममकार के समुद्धात के लिए. अनित्य-संशा की भावना । भगवान ने राहुल-मुन में एक के लिए गात कर्मस्थानों का उपदेश किया । इसलिए वचन मात्र में अभिनिवेश न रखकर मन जगह अभिप्राय की खोज होनी चाहिये । दस कसिणों का ग्रहण कर भावना किस प्रकार की जाती है और ध्यानों का उत्पाद कैसे होता है इस पर अब हम विस्तार से विचार करेंगे। कसिण-निर्देश पृथ्वी-कसिण-योगी को कल्याण-मित्र के समीप अपनी चर्या के अनुकूल किसी कर्मस्थान का ग्रहण कर समाधि-भावना के अनुपयुक्त विहार का परित्याग कर अनुरूप विहार में वास करना चाहिये और भावना-विधान का किसी अंश में भी परित्याग न कर कर्मस्थान का आसेवन करना चाहिये। जिम विहार में प्राचार्य निवास करते हो यदि वहाँ माधि-भावना की सुविधा हो तो वहीं रहकर कर्मस्थान का संशोधन करना चाहिये । यदि असुविधा हो तो प्राचार्य के विहार से अधिक से अधिक एक योजन की दूरी पर निवास करना चाहिये। यदि किसी विषय में सन्देह उपस्थित हो या स्मृति-संमोप हो तो बिहार का दैनिक-कृत्य संगदन कर आचार्य के समीप जाकर गृहीत कर्मस्थान का संशोधन करना चाहिए । यदि एक योजन के भीतर भी कोई उपयुक्त विहार न मिले तो सब प्रकार के सन्देहों का निराकरण कर कर्मस्थान के अर्थ और अभिप्राय को भली प्रकार चित्त में प्रतिष्ठित कर कर्मस्थान को सुविशुद्ध करना चाहिये । तदनन्तर दूर भी जाकर समाधि-भावना के अनुरूप स्थान में निवास करना चाहिये। अठारह दोषों में से किसी एक से भी समन्वागत विहार समाधि-भावना के अनुरूप नहीं होता। सामान्यतः योगी को महाविहार, नवविहार, जीर्णविहार, राजपथ-समीपवती विहार आदि में निवास नहीं करना चाहिये । ८