पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४७

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पंचम अध्याय ५६ अनुरूप विहार में निवास करते हुए योगी को पहले हुद्र अन्तरायों का उपच्छेद करना चाहिये । अर्थात् यदि चीवर मैला हो तो उसे फिर से रंगवाना चाहिये, यदि पात्र मैला हो तो उसे शुद्ध करना चाहिये, यदि केश और नख बढ़ गए हों तो उनको कटवाना चाहिये और यदि चीवर जीर्ण हो गया हो तो उसको सिलवाना चाहिये। इस प्रकार तुद्र अन्तरायों का उपच्छेद करना चाहिये । भोजन के उपरान्त थोडा विश्राम कर एकान्त स्थान में पर्यवद्ध हो सुखपूर्वक बैठकर प्राकृतिक अथवा कृत्रिम पृथ्वी-मएइल में भावना-ज्ञान द्वारा पृथ्वी-निमिन का ग्रहण करना चाहिये; अर्थात् पृथ्वी-मण्डल की ओर बार बार देखकर चक्षुनिमीलन के द्वारा पृथ्वी-निमित्त को मन में अच्छी तरह धारण करना चाहिये, जिसमें पुनरवलोकन के क्षण में ही वह निमित्त उपस्थित हो जाय । जो पुण्यवान् है और जिसने पूर्वजन्म में श्रमण-धर्म का पालन करते हुए पृथ्वी- कसिण नामक कर्मस्थान की भावना कर ध्यानों का उत्पाद किया है, उसके लिए कृत्रिम पृथ्वी-मण्डल के उत्पादन की अावश्यकता नहीं है । वह खलमण्डलादिक प्राकृतिक पृथ्वी- मण्डल में ही निमित्त का ग्रहण कर लेता है। पर जिसको ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं है, उसे चार कसिण दोषों का परिहार करते हुए, कृत्रिम पृथ्वी-मण्डल बनाना चाहिये । नील, पीत, लोदित, और अवदान ( श्वेत ) के संसर्गवश पृथ्वी-कसिण में दोष प्राप्त हो जाते हैं । नीलादि वर्ण दस कमिणों में परिगणित हैं । इनके संसर्ग से शुद्ध पृथ्वी-कसिण का उत्पाद नहीं होता। इसीलिए इन वर्गों की मृत्तिका का परित्याग बताया गया है। अतः पृथ्वी-मण्डल बनाते समय नीलादि वर्ण की मृत्तिका का ग्रहण न कर गङ्गा नदी की अरुण वर्ण की मृत्तिका काम में लानी चाहिये । विहार में जहाँ श्रामणेर आदि आते-जाते ही वहाँ मण्डल में बनाना चाहिये । विहार के प्रत्यन्त में, प्रच्छन्न स्थान में, गुहा या पर्णशाला में, पृथ्वी मण्डल बनाना चाहिये । यह मण्डल दो प्रकार का होता है.---१. चल ( पालि : संहारिम = चलनयोग्यम् ) अचल ( पालि : तत्रक)। चार दण्डों में कपड़ा, चमड़ा या नटाई बांधकर उसमें साफ की हुई मिट्टी का नियत प्रमाण का वृत्त ( वर्तुल ) लीप देने से चल-मण्डल बनता है। भावना के समय यह भूमि पर फैला दिया जाता है। पद्मकर्णिका के श्राकार में स्थाणु गाड़कर लताओं से उसे वेष्टित कर देने से अचल-मएइल बनता है। यदि अरुण वर्ण की मृत्तिका पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हो सके तो अधोभाग में दूसरे तरह की मिट्टी डालकर ऊपर के हिस्से में सुपरिशुद्ध अरुण वर्ण की मृत्तिका का एक बालिश्त चार अङ्गुल के विस्तार का वृत्त बनाना चाहिये। प्रमाण के संबन्ध में कहा गया है कि वृत्त शूर्पमात्र हो अथवा शरावमात्र | कुछ लोगों के मत में इन दोनों का सम-प्रमाण है, पर कुछ का कहना है कि शराव (= प्याला) एक बालिश्त चार अङ्गल का होता है और शूर्प का प्रमाण इससे अधिक है । इनके मत में और २.