पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४८

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बौर-धर्म-दर्शन वृत्त को शराव से कम और शूर्प से अधिक प्रमाण का न होना चाहिये । इस वृत्त को पत्थर से घिसकर भेरि-तल के सदृश सम करना चाहिये । स्थान साफ कर और स्नान कर मण्डल से ढाई हाय के फासले पर एक बालिश्त चार अङ्गुल ऊँचे पैरोंवाले पीढ़े पर बैठना चाहिये। इससे अधिक फासले पर बैठने से मण्डल नहीं दिखलाई देगा और यदि इससे नजदीक बैठा जाय तो मण्डल के दोष देखने में आवेंगे। यदि उस प्रमाण से अधिक ऊँचे प्रासन पर बैठा जाय तो गरदन झुकाकर देखना पड़ेगा और यदि इससे भी नीचे आसन पर बैठा जाय तो घुटने दर्द करने लगेंगे । इसलिए, उक्त प्रकार के श्रासन पर ही बैठना चाहिये । काम का दोष देखकर और ध्यान के लाभ को ही सब दुःखों के अतिक्रमण का उपाय निश्चित कर नैष्क्रम्य के लिए प्रीति उत्पन्न करनी चाहिये । बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध और अार्यश्रावको ने इसी मार्ग का अनुसरण किया है । मैं भी इसी मार्ग का अनुगामी हो एकान्त-सेवन के मुख का आस्वाद करूँगा, ऐसा विचार कर उसे योग-साधन के लिए उत्साह पैदा करना चाहिये और सम अाकार से चक्षु का उन्मीलन कर निमित्त-ग्रहण ( पालि = उमानिमित्तं ) की भावना करनी चाहिये । जिस प्रकार अतिसूक्ष्म और प्रतिभास्वर रूप के ध्यान से प्रास्त्र थक जाती हैं उसी प्रकार अति उन्मीलन से प्राग्ने थक जाती हैं और मण्डल का रूप भी अत्यन्त प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके स्वभाव का अत्यन्त आविर्भाव होता है; तथा उसके वर्ण और लक्षण अधिक स्पष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार निमित्त का ग्रहण नहीं होता। मन्द उन्मीलन से मण्डल का रूप दिखाई नहीं देता और दर्शन के कार्य में चित्त का व्यापार मन्द हो जाता है; इसलिए निमित्त का ग्रहण नहीं होता। अतः सम श्राकार से ही चक्षु का उन्मीलन करना चाहिये। पृथ्वी-कसिंरण के अरुण वर्ण का चिन्सन और पृथ्वी-धातु के लक्षण का ग्रहण न करना चाहिये । यद्यपि वर्ण का चिन्तन मना है तथापि पृथ्वी धातु की उत्सन्नतावश वर्ण सहित पृथ्वी की भावना एक प्रज्ञप्ति के रूप में करनी चाहिये । इस प्रकार प्राप्तमात्र में चित्त की प्रतिष्ठा करनी चाहिये । लोक में संभार सहित पृथ्वी को 'पृथ्वी कहते हैं । पृथ्वी, मही, मेदिनी, भूमि, वसुधा, वसुन्धरा श्रादि पृथ्वी के नामों में से जो नाम योगी को पसन्द हो, उस नाम का उच्चारण .. सुप्पसरावानि समप्पमाणानि इच्छितानि, केचि पन बदन्ति--सराधमत्त विधिः चतुजुल होति, सुप्पम सतो अधिकप्पमाणन्ति । किसिम कसिणमण्डलं हेटिम- परिच्छेदेन सरावमत उपरिमपरिच्छदेन सुप्पमत्त, न ततो अयो उद्ध वाति परितप्प- माणाभेदसंगहणथं "सुप्पमत्त वा सरावमत्त चा" ति चुत्तन्ति । यथोपट्टि से भारम्मणे एकंगुलमपि बडितं अपमाणमेवासि । बुत्तो वायमस्थो केचि पन समाप कसिणमण्डलं कासम्बन्ति वदन्ति । [परमस्थमजूसा टीका ] २. यदा पन तं निमित्त चिरोन समुग्गाहित होति, चक्खुना पस्सन्तरसेव मनोहारस आपाथमागतं, तदा तमेव मारम्मर्ण उग्गहनिमित्त माम । साथ भावमा समाधियति । [अभिधम्मस्थसंगहो, 4110]