पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४९

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पंचम अध्याय करना चाहिये । पर पृथ्वी नाम ही प्रसिद्ध है, इसलिए पृथ्वी नाम का ही उच्चारण कर भावना करनी अच्छी है । कभी आँग्य खोलकर, कभी आँख मूंदकर, निमित्त का ध्यान करना चाहिये । जब तक निमित्त का उत्पाद नहीं होता तब तक इसी प्रकार भावना करनी चाहिये । जब भावना- वश आँखें मूंदने पर उसी तरह जैमा आँखें खोलने पर निमित्त का दर्शन हो, तब समझना चाहिये कि निमित्त का उत्पाद हुआ है। निमित्तोपाद के बाद उस स्थान पर न बैठना चाहिये । अपने निवास-स्थान में बैठकर भावना करनी चाहिये । यदि किसी अनुपयुक्त कारण- क्श इस तरुण समाधि का नाश हो जाय तो शीघ्र उस स्थान पर जाकर निमित्त का ग्रहण कर अपने वास-स्थान पर लौट आना चाहिये और बहुलता के माथ हम भावना का प्रासेवन और बार बार चित्त में निमित्त की प्रतिष्ठा करनी चाहिये । ऐसा करने से क्रमपूर्वक नीवरण अर्थात् अन्तरायों का नाश और क्लेशों का उपशम होता है । भावना-क्रम से जब श्रद्धा आदि इन्द्रिया' मुविशद और तीक्ष्ण हो जाती है तब कामादि दोष का लोप होता है और उपचार-समाधि में चित्त समाहित हो प्रतिभाग-निमित्त का प्रादुर्भाव होता है। प्रतिभाग-निमित्त, उद्ग्रह-निमिन (पालि = उग्गहनिमित्त) में से कई गुना अधिक सुरिशुद्ध होता है। उन्ग्रह-निमित्त में कसिण-दोष ( जैसे उंगली की छाप) दिखलाई पड़ते हैं; पर प्रतिभाग-निमित्त भास्वर और स्वन्छ होकर निकलता है । प्रतिभाग- निमिन वर्ण और श्राकार ( संस्थान ) मे रहित होता है । यह चल द्वारा ज्ञेय नहीं है, यह स्थूल पदार्थ नहीं है और अनि यगा अादि लक्षणों से अङ्कित नहीं है। केवल ममाधि-लाभी को यह उपस्थित होता है और भावना-मंज्ञा से इसका उत्पाद होता है। इसकी उत्पनि के .. इन्द्रिय पाँच है-समाधि, वीर्य, श्रद्धा, प्रज्ञा, स्मृति ! क्लेश के उपशम में इनका माधि- पस्य होने के कारण इनकी इन्द्रिय संज्ञा है । वास्तव में २२ इन्द्रियों हैं। इनमें से पांच का यह संग्रह प्रसिद्ध है -"श्रन्द्रावार्थ- स्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्षकमितरेषाम्" [ योग सूत्र ११२०] । विशुद्धिमार्ग में इन पांच इन्द्रियों का कृस्य इस प्रकार दिखाया गया है-"सदादीनं पटिपक्खाभिभवनं सम्पयुत्त- धम्मानञ्च पसनाकारादिभावसम्पापन" [पृ. ५१३] । 'श्रद्धा चित्त के सम्प्रसाद' को कहते हैं: वीर्य का अर्थ 'उत्साह है अनुभूत. विषय के असम्प्रमोष को 'स्मृति' कहते हैं; 'समाधि' चित्त की एकाग्रता को कहते हैं और 'प्रज्ञा' उसे कहते हैं जिसके द्वारा यथाभूत वस्तु का ज्ञान होता है। २. तथा समाहितस्स पनेतस्स ततो पद तस्मि उग्गहनिमित्त परिकम्मसमाधिना भावनमनु- युजन्सस्स यहा तप्पष्टिभागं वत्थुधम्मविमुश्चितं पत्तिसंखातं भावनाभयमारम्मणं चिप्स संनिसिम समधित होति, तदा तं पटिभागनिमित्त समुप्पन्न सि पवुञ्चति । तसो पट्टाय पटिबन्धविप्पहीना कामावचर-समाधि-संखात-उपचारमाधनानिष्फला नाम होति । [अभिधम्मस्थसंगहो |