पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५०

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बौद्ध-धर्म-दर्शन समय से ही अन्तरायों का नाश और क्लेशों का उपशम होता है तथा चित्त उपचार-समाधि' द्वारा समाहित होता है। प्रतिभाग-निमित्त का उत्पाद अति दुष्कर है । इस निमित्त की रक्षा बड़े प्रयत्न के साथ करनी चाहिये । क्योंकि ध्यान का यही श्रालम्बन है। निमित्त के विनष्ट होने से लब्ध-ध्यान भी नष्ट हो जाता है। उपचार-समाधि के बलवान् होने से ध्यान के अधिगम की अवस्था अर्थात् अर्पणा-समाधि उत्पन्न होती है। उस अवस्था में ध्यान के अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है । उपयुक्त के प्रासेवन और अनुपयुक्त के परित्याग से निमित्त की रक्षा और अर्पण। समाधि का लाभ होता है। जिस श्रावास में निमित्त उत्पन्न और स्थिर होता है, जहाँ स्मृति का सम्प्रमोष नहीं होता और चित्त एकाग्र होता है, उसी श्रावास में योगी को निवास करना चाहिये। जो गोचर, ग्राम, आवास के समीप हो और जहाँ भिना सुनभ हो वही उपयुक्त है। योगी के लिए लौकिक-कथा अनुपयुक्त है। इससे निमित्त का लोप होता है। योगी को ऐसे गुरुष का संग न करना चाहिये जो लौकिक कथा कहे; क्योंकि इससे समाधि में बाधा उपस्थित होती है और प्राप्त किया है वह भी खो जाता है। उपयुक्त भोजन, ऋतु और ईर्यापथ (= वृत्ति ) का ग्रासेवन करना चाहिये, ऐसा करने से तथा बहुलता के साथ निमित्त का आसे- वन करने से शीघ्र ही अर्पणा-ममाधि का लाभ होता है । पर दि इस विधि से भी अर्पणा का उत्पाद न हो तो निम्नलिखित दश प्रकार से अर्पणा में कुशलता प्राप्त होती है:- १. शरीर तथा चीवर अादि को शुद्धता से । यदि केश-मख बढ़े हों, शरीर से दुर्गन्ध आती हो, चीवर जीणं तथा शिष्ट और श्रासन मैला हो तो चित्त तथा चैतसिक-धर्म भी अपरिशुद्ध होते हैं; ज्ञान भी अपरिशुद्ध होता है, समाधि-भारना दुर्वल और क्षीण हो जाती है; कर्मस्थान भी प्रगुण भाव को नहीं प्राप्त होता और इस प्रकार अङ्गों का प्रादुर्भाव नहीं होता । इसलिए शरीर तथा चीयर आदि को विशद तथा परिशुद्ध रखना चाहिये जिसमें चित्त मुम्बी हो और एकाग्र हो । २. श्रद्धादि इन्द्रियों के समभाव प्रतिपादन से । श्रद्धादि इन्द्रियों में से ( श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा ) यदि कोई एक इन्द्रिय बलवान् हो तो इतर इन्द्रियाँ अपने कृत्य में असमर्थ हो जाती हैं। जिसमें श्रद्धा का प्राधिक्य. होता है और जिसकी प्रज्ञा मन्द होती है, वह अबस्तु में श्रद्धा करता है, जिसकी प्रज्ञा बलवती होती है और श्रद्धा मन्द होती है वह शटता का पद ग्रहण करता है और उसका चित्त शुष्क तर्क से विलुप्त होता है। श्रद्धा और प्रज्ञा का अन्योन्यविरह अनर्थावह है। इसलिये इन दोनों इन्द्रियों का समभाव इष्ट है। दोनों की समता से ही अर्पणा होती है। इसी प्रकार वीर्य १. अमिधर्मकोश [२२] में इसे 'सामन्तक' कहा है । यह ध्यान का पूर्वाग है। मपंचा- समाधि को मौल-ध्यान कहते हैं। प्रत्येक मौड़-ध्यान का एक एक सामन्तक होता है, मौस-ध्यान माठ है-चार रूप, चार आकय । "एवं मौक-समापतिद्रग्यमहविध विधा"ममि. EkI