पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५१

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पंचम अध्याय और समाधि का भी समभाव इष्ट है । ममाधि यदि प्रबल हो और वीर्य मन्द हो तो श्रालस्य अभिभूत करता है; क्योंकि समाधि श्रालस्य-पाक्षिक है । यदि वीर्य प्रबल हो और समाधि मन्द हो तो चित्त की भ्रान्तता या विक्षेप अभिभूत करता है; क्योंकि वीर्य विक्षेप-पाक्षिक है। किसी एक इन्द्रिय की सातिशय प्रवृत्ति होने से अन्य इन्द्रियों का व्यारार मन्द हो जाता है । इसलिए श्रर्पणा की मिद्धि के लिए, इन्द्रियों की एकरमता अभीष्ट है। किन्तु शमथ-यानिक को बलवती श्रद्धा भी चाहिये। विना श्रद्धा के अर्पणा का लाभ नहीं हो मकता। यदि वह यह सोचे कि केवल पृथ्वी-पृथ्वी इस प्रकार चिन्तन करने से कैसे ध्यान की उत्पत्ति होगी तो अर्पणा-समाधि का लाभ नहीं हो सकता। उसको भगवान बुद्ध की बताई हुई विधि की सफलता पर विश्वाम होना चाहिये । बलवती स्मृति तो सर्वत्र अभीष्ट है क्योंकि चिन स्मृति-पगया है और इमलिए बिना स्मृति के चित्त का निग्रह नहीं होता। ३. निमित्त कौशल से अर्थात् लन्ध-निमिन की रक्षा में कुशल और दन्न होने से । ४. जिम ममय चित्त का प्राह (उत्थान) करना हो उम ममय चित्त का प्रग्रह करने में। जिम समय वीर्य, प्रामोद्य आदि की अति शिथिनना से भावना-चित्त मङ्कुचित होता है, उस समय प्रश्नधि (= माय और चित्त की शान्ति ), समाधि और उपेक्षा इन बोध्यङ्गों' की भावना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इनसे सङ्कुचित चित्त का उत्थान नहीं होता । जिस समय चित्त संकुचित हो उस समय धर्म-विचय (प्रज्ञा), वीर्य (= उत्साह ) और प्रीति इन बोध्यक्षों को भामना करना चाहिये । इनसे मन्द-चित्त का उत्थान होता है। कुशल ( - पुण्य ) और अकुशल ( अपुण्य ) के स्वभाव तथा सामान्य लक्षणों के यथार्थ श्रवयोध से धर्मविचय की भावना होती है। प्रालस्य के परित्याग से अभ्यासक्श कुशल-क्रिया का श्रारम्भ, वीर्य-सञ्चय और प्रतिपक्ष धर्मों के विध्वंसन की पटुता प्राप्त होती है। प्रीतिमम्प्रयुक्त धर्मों का निरन्तर चिन्तन करने से प्रीति का उत्याद और वृद्धि होता है। परिप्रश्न, शरीरादि की शुद्धता, इन्द्रिय-समभाव-करण, मन्दबुद्धिवालों के परिवर्जन, प्रज्ञावान् के श्रासेवन, स्कन्ध, श्रायतन, धातु, चार श्रार्यसत्य, प्रतीत्यसमुत्पाद श्रादि गम्भीर जानकथा की प्रत्यवेता तथा प्रज्ञापरायणता से धर्मविचय का उत्पाद होता है । दुर्गति श्रादि दुःखावस्था की भीषणता का विचार करने से, इस विचार से कि लौकिक अथवा लोकोत्तर जो कुछ विशेषता है उसकी प्रीति वीर्य के अधीन है, इस विचार से कि श्रालसी पुरुष बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, महानायकों के मार्ग का अनुगामी नहीं हो सकता, शास्ता के महत्त्व का चिन्तन करने से (शास्ता ने हमारे साथ बहुत उपचार किया है, शास्ता के शासन का अतिक्रमण नहीं हो सकता, वीर्यारम्भ (= कुशलोत्साह ) की शास्ता ने प्रशंसा १. बोधि के सात प्र- स्मृति, २ धर्मविषय, वीर्य, प्रीति, ५ प्रश्रब्धि, समाधि मौर, उपेक्षा ।