पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५२

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६१ बाजू-चम-दशन शमथ की है ), धर्मदाय के महत्त्व का चिन्तन करने से ( मुझे धर्म का दायाद होना चाहिये, आलसी पुरुष धर्म का दायाद नहीं हो सकता ), पालोक-संज्ञा के चिन्तन से, ई-पथ के परिवर्तन और खुली जगह में रहने से, श्रालस्य और अकर्मण्यता का परित्याग करने से, श्रालसियों के परिवर्जन और वीर्यवान् के सेवन से, व्यायाम = उद्योग) के चिन्तन से तथा वीर्यपरायण होने से वीर्य का उत्पाद होता है। बुद्ध, धर्म, सङ्घ, शील, त्याग, (दान) देवता और उपशम के निरन्तर स्मरण से, बुद्धादि में जो स्नेह और प्रसाद नहीं रखता उसके परिवर्जन तथा बुद्ध में जो स्निग्ध है उसके श्रासेवन से, सम्पसादनीय-सुत्तन्त' के चिन्तन तथा प्रीति-परायण होने से प्रीति का उत्पाद होता है। ५. जिस समय चित्त का निग्रह करना हो, उस समय चित्त का निग्रह करने से । जिस समय वीर्य, मंबेग (= वैराग्य ), प्रामोद्य के अतिरेक से चित्त उद्धत और अन- वस्थित होता है उस समय धर्मविचय, वीर्य और प्रीति की भावना अनुपयुक्त है; क्योंकि इनसे उद्धत-चित्त का समाधान नहीं हो सकता । ऐसे समय प्रश्रब्धि, समाधि और उपेक्षा इन बोध्यङ्गों की भावना करनी चाहिये। काय और चित्त की शान्ति का निरन्तर चिन्तन करने से प्रचब्धि की भावना, और अव्यग्रता का निरन्तर चिन्तन करने से समाधि की भावना और उपेना-मम्प्रयुक्त धर्मों का निरन्तर चिन्तन करने से उपेक्षा की भावना होती है। प्रणति-भोजन, अच्छी ऋतु, उपयुक्त ईर्यापथ के अासेवन से, उदासीन वृत्ति से, क्रोधी पुरुष के परित्याग और शान्त-चित्त पुरुष के आसेवन से तथा प्रश्नब्धि-परायण होने से प्रब्धि का उत्पाद होता है। शरीरादि की शुद्धता से, निमित्त कुशलता से, इन्द्रिय-समभाव-करण से, समय समय पर चित्त का प्रग्रह (लीन चित्त का उत्थान ) और निग्रह ( उद्धत चित्त का समाधान ) करने से, श्रद्धा और संकेा (= वैराग्य ) द्वारा उपशम-सुग्व-रहित चित्त का संतर्पण करने से प्रग्रह- निग्रह-सन्तर्पण के विषय में सम्यक-प्रवृत्त भावना-चित्त की विरक्तता से, असमाहित पुरुष परित्याग और समाहित पुरुष के सेवन से, ध्यानी की भावना, उत्पाद, अधिष्ठान (= अवस्थिति ) व्युत्थान, संजश और व्यवदान (= विशुद्धता ) के चिन्तन से तथा समाधि-परायण होने से समाधि का उत्पाद होता है। जीवों और संस्कारों के प्रति उपेक्षा-भाष, ऐसे लोगों का परित्याग जिनको जीव और संस्कार प्रिय हैं, ऐसे लोगों का प्रासेवन जो जीव और संस्कारों के प्रति उपेक्षा-भाव रखते हैं, तथा उपेक्षा-परायणता से उपेक्षा का उत्पाद करते हैं। ६. जिस समय चित्त का सम्प्रहर्षण (=मन्तपंण ) करना चाहिये उस समय चित्त के सम्प्रहर्षण से । .. दीघनिकाय, 1 इस सूत्र में बुददिकों का गुण-परदीपन है।