पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५३

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पंचम अध्याय ६५ जब प्रशा-व्यापार के अल्पभाव के कारण या उपशम-सुख के अलाभ के कारण चित्त का तर्पण नहीं होता तब अाठ संवेगों द्वारा संवेग उत्पन्न करना चाहिये । जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अपाय दुःख, अतीत में जिस दुःख का मूल हो, अनागत में जिस दुःख का मूल हो और वर्तमान में श्राहारपर्येपण का दुश्व—यह पाठ संवेग-वस्तु हैं । बुद्ध, धर्म और संघ के गुणों के श्रनुस्मरण से चित्त का सम्प्रसाद होता है। ७. जिस समय चित्त का उपेक्षा भाव होना चाहिये उस समय चित्त की उदासीन- वृत्ति से। जत्र भावना करते हुए योगी के चित्त का व्यापार मन्द नहीं होता, चित्त का विक्षेप नहीं होता, चित्त को उपशम मुग्य का लाभ होता है, यालम्बन में चित्त की सम-प्रवृत्ति होती है और शमथ के मार्ग में चित्त का आरोहण होता है; तत्र प्रग्रह, निग्रह और सम्प्रहर्षण के विषय में चित्त की उदासीन वृनि होती है । ८. ऐसे लोगों के परित्याग से जो अनेक कार्यों में व्याप्त रहते हैं, जिनका हृदय विक्षिप्त है और जो ध्यान के मार्ग में कभी प्रवृत्त नहीं हुए हैं। ६. ममाधि-लाभी पुरुषों के श्रासेवन से १०. समाधि-परायण होने में | उक्त दश प्रकार से अर्पणा में कुशलता प्राप्त की जाती है आलस्य और चित्त-विक्षेप का निवारण कर जो योगी सम-प्रयोग से भावना-चित्त को प्रतिभाग-निमित्त में स्थित करता है वह अर्पणा-ममाधि का लाभ करता है । चित्त के लीन और उद्धत भावों का परित्याग कर निमिन की ओर चित्त को प्रवृत्त करना चाहिये । जब योगी चित्त को निमिन की ओर प्रेरित करता है तब चित्त-द्वार भावना के बल से उपस्थित उसी पृथ्वी-मण्डल-रूपी पालम्बन को अपनी ओर आकृष्ट करता है। उस समय उस श्रालम्बन में चार या पाँच चेतनायें ( पालि : लगन' ) उत्पन्न होती हैं। इनमें से अन्तिम रूपावचर-भूमि की है, शेष तीन या चार चेतनायें काम-धातु की हैं। प्राकृतिक चित्त की अपेक्षा इन तीन या चार चेतनाओं के वितर्क, विचार, प्रीति, सुग्व और एकाग्रता श्रादि भावना के बल से पटुतर होते हैं। इन्हें 'परिकर्म' ( पालिरूप : परिकम्म ) कहते हैं। क्योंकि ये चेतनायें अर्पणा की प्रति-संस्कारक हैं । अर्पणा के समीपवर्ती होने से इन्हें 'उपचार' भी कहते है। अर्पणा के अनुलोम होने से इनकी 'अनुलोम' संज्ञा भी है। तीसरी या चौथी चेतना 1 1 1. अवतीति अवनम् । वाषि-चिस के कृत्यों के संग्रह में इसका बारहवाँ स्थान है। कियसंगहे किमचानि नाम पटिसन्धि-भवंगावज्जम-दस्सन-सवन-वायन-सायन-फुलम- संपटिमान-संतोरण-बोटपन-जवन-तबारम्मया-चुसिषसेन पुरसविधानि भवन्ति । [अभिधम्मस्थसंगहो, t] १. भूमियों बारी-मपाय-भूमि, काम-सुगति-भूमि, रूपावर भूमि, और मरूपावर- भूमि। ६