पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५६

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चौर-धर्म-दर्शन अबक्रान्तिका-प्रीति शरीर को अवक्रान्त कर भिन्न हो जाती है । उद्वेगा-प्रीति बलवती होती है। स्फरणा प्रीति निश्चला और चिरस्थायिनी होती है। यह सकल शरीर को व्याप्त करती है। यह पाँच प्रकार की प्रीति परिपक्व हो, काय और चित्त-प्रश्रब्धि ( सान्ति) को सम्पन्न करती है। प्रभब्धि परिपाक को प्राप्त हो कायिक और चैतसिक सुख को सम्पन्न करती है । सुख परिपक्क हो समाधि का परिपूरण करता है। स्फरणा-प्रीति ही अर्पणा-समाधि का मूल है। यह प्रीति अनुभम से वृद्धि को पाकर अर्पणा-समाधि से सम्प्रयुक्त होती है। यहाँ यही प्रीति अभिप्रेत है। 'सुखा काय और चित्त की बाधा को नष्ट करता है। सुत्र से सम्प्रयुक्त धर्मों की अभिवृद्धि होती है। वितर्क चित्त को श्रालम्बन के समीप ले जाता है। विचार से पालम्बन में चित्त की अविच्छिन्न प्रवृत्ति होती है । वितर्क-विचार से चित्त-समाधान के लिए भावना-प्रयोग सम्पादित होता है । प्रीति से चित्त का तर्पण और सुख से चित्त की वृद्धि होती है । तदनन्तर एकाग्रता, अवशिष्ट स्पर्शादि धर्मों सहित चिन्त को एक बालम्बन में सम्यक् और समरूप से प्रतिष्टित करती है । प्रतिपक्ष धर्मों के परित्याग से चित्त का लीन और उद्धत भाव दूर हो जाता है । इस प्रकार चित्त का सम्यक् और सम अाधान होता है । ध्यान के क्षण में एकाग्रता-वश चित्त सातिशय समाहित होता है। इन पांच अङ्गों का जब तक प्रादुर्भाव नहीं होता तब तक प्रथम ध्यान का लाभ नहीं होता । यह पाँच अङ्ग उपचार-क्षण में भी रहते हैं पर अर्पणा-समाधि में पटुतर हो जाते हैं । क्योंकि उस क्षण में यह रूप-धातु के लक्षण प्राप्त करते हैं। प्रथम ध्यान की त्रिविध-कल्याणता है । इसके आदि, मध्य, और अन्त तीनों कल्याण के करने वाले हैं । प्रथम ध्यान दस लक्षणों से सम्पन्न है । ध्यान के उत्पाद-क्षण में भावना-क्रम के पूर्व-भाग की (अर्थात् गोत्रभू तक) विशुद्धि होती है । यह ध्यान की प्रादि-कल्याणता है । इसके तीन लक्षण है.-नीवरणों के विष्कम्भन से चित्त की विशुद्धि, चित्त की विशुद्धि से मध्यम शमथ-निमित्त का अभ्यास और इस अभ्यासक्श उक्त निमित्त में चित्त का अनुप्रयेश । स्थिति-क्षण में उपेक्षा को अभिवृद्धि विशेष रूप से होती है । यह ध्यान की मध्य-कल्याणता है, यह तीनों लक्षणों से समन्वागत है-विशुद्ध चित्त की उपेक्षा, शमथ की भावना में रत चित्त की उपेक्षा और एक पालम्बन में सम्यक समाहित चित्त की उपेक्षा । ध्यान के अवसान में प्रीति का लाभ होता है, अवसान-क्षण, में कार्य निष्पन्न होने से धर्मों के अनतिवर्तनादि-साधक-ज्ञान की परिशुद्धि प्रकट होती है । इसके चार लक्षण हैं-१. जातधर्म एक दूसरे को अतिक्रान्त नहीं करते; २. इन्द्रियों की ( पांच मानसिक शक्तियों की ) एक एक सत्ता होती है; ३. योगी इनके उपकारक वीर्य धारण करता है; ४. और योगी इनका श्रासेवन करता है। जिस क्षण में अर्पणा का उत्पाद होता है, उसी क्षण में अन्तराय उपस्थित करने वाले क्लेशों से चित्त विशुद्ध होता है । 'परिकर्म' की विशुद्धि से अर्पणा की सातिशय विशुद्धि होती है, जब तक चित्त का प्रावरण दूर नहीं होता तब तक मध्यम शमथ-निमित्त का अभ्यास नहीं हो सकता 1 लीन और उद्धाभाव इन दो अन्तों का परित्याग करने से इसे मध्यम कहते है।