पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५८

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बौद-धर्म-दर्शन भली प्रकार प्रहाण किये बिना, काय-प्रश्रब्धि द्वारा कायजाम को अच्छी तरह शान्त किये बिना, वीर्य द्वारा श्रालस्य और अकर्मण्यता का अच्छी तरह परित्याग किये बिना, शमथ, निमित्त की भावना द्वारा खेद और चित्त की अनवस्थितता का उन्मूलन किये बिना, तथा समाधि के अन्य अन्तरायों का अच्छी तरह उपशम किये बिना जो योगी ध्यान सम्पादित करता है, उसका ध्यान शीघ्र ही भिन्न हो जाता है । पर जो योगी समाधि के अन्तरायों का अत्यन्त प्रहाण कर ध्यान सम्पादित करता है वह दिन भर समाधि में रत रह सकता है । इसलिए जो योगी अर्पणा की चिरस्थिति चाहता है, उसे अन्तरायों का अत्यन्त प्रहाण करके ही ध्यान सम्पन्न करना चाहिये । समाधि-भावना के विपुलभाव के लिए, लब्ध-प्रतिभाग-निमित्त की वृद्धि करनी चाहिये। जिस प्रकार भावना द्वारा ही निमित्त की उत्पत्ति होती हैउसी प्रकार भावना द्वारा उनकी वृद्धि भी होती है । इस प्रकार ध्यान-भावना भी बुद्धि को प्राप्त होती है। प्रतिभाग- निमित्त की वृद्धि के लिए दो भूमियाँ हैं- १. उपचार और २. अर्पणा; इन स्थानों में से एक में तो अवश्य ही इसकी वृद्धि करनी चाहिये । प्रतिभाग-निमित्त की वृद्धि परिच्छिन्न रूप से ही करना चाहिये । क्योंकि बिना परिच्छेद के भावना की प्रवृत्ति नहीं होती। इसकी वृद्धि कम से बकवाल-पर्यन्त की जा सकती है। जिस योगी ने पहले ध्यान का लाभ किया है उसे प्रतिभाग-निमित्त का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये; पर अधिक प्रत्यवेक्षा न करनी चाहिये। क्योंकि प्रत्यवेक्षा के प्राधिक्य से ध्यान के अङ्ग अतिविभूत मालूम होते हैं और प्रगुण-भाव को नहीं प्राप्त होते । इस प्रकार वे स्थूल और दुर्बल ध्यान के अङ्ग उत्तर-ध्यान के लिए मुक्ता उत्पन्न नहीं करते। उद्योग करने पर भी योगी प्रथम ध्यान से च्युन होता है और दूसरे ध्यान का लाभ नहीं करता । योगी को इसलिए, याच प्रकार से प्रथम ध्यान पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहिये। तभी द्वितीय ध्यान की प्राप्ति हो सकती है।' पाँच प्रकार यह है --१. श्रावर्जन, २. सम, ३. अधिष्ठान, ४. व्युत्थान और ५. प्रत्यवेक्षण। इष्ट देश और काल में ध्यान के प्रत्येक अङ्गको इष्ट समय के लिए शीघ्र यथात्रि प्रवृत्त करने की सामर्थ्य श्रावर्जन-चशिता कहलाती है । जिसकी आवर्जन-शिता सिद्ध हो चुकी है वह जहाँ चाहे जब चाहे और जितनी देर तक चाहे प्रथम ध्यान के किसी अङ्गको नुस्त प्रवृत्त कर सकता है। श्रावर्जनशिता प्रान करने के लिए. योगी को क्रम से ध्यान के अङ्गों का श्रावर्जन करना चाहिये । जो योगी प्रथम ध्यान से उठ कर पहले वितर्क का श्रावर्जन करता है और भवाङ्ग का उपच्छेद करता है, उसमें उत्पन्न आवर्जन के बाद ही वितर्क को पालम्बन बना चार या पाँच जवन (चेतना) उत्पन्न होते हैं । तदनन्तर दो क्षण के लिए. भवाङ्ग में पात होता है। तब विचार को बालम्बन बना उक्त प्रकार से फिर जवन उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार थान के पाँचो श्रङ्गों में चित्त को निरन्तर प्रेषित करने की शक्ति योगी को प्राप्त होती है। .. "मधिगमेन समं ससम्पयुस्सस्स मानस सम्मानापज्जन पटिपन समापग्मन मानस- मविपरमस्थमजूसाटीका ] ।