पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५९

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पंचम अध्याय अनावर्जन के साथ ही शीघ्र ध्यान-समङ्गी होने की योग्यता एक या दस अङ्गुलि-स्फोट के काल तक वेग को रोक कर ध्यान की प्रतिष्ठा करने की शक्ति अधिष्ठान-शिता है। ध्यान- समङ्गी होकर ध्यान से उठने की सामर्थ्य व्युन्थान-बशिता है। यह व्युत्थान भवाङ्ग-चित्त की उत्पत्ति ही है। पूर्व परिकर्म-वश इस प्रकार की शक्ति सम्पन्न करना कि, मैं इतने क्षण ध्यान-समङ्गी होकर ध्यान से व्युत्थान करूँगा, व्युत्थान-वशिता है। वितर्क श्रादि ध्यान के अङ्गों के यथाक्रम आवर्जन के अनन्तर जो जवन प्रवृत्त होते हैं वह प्रत्यवेक्षण के जवन हैं । इनके प्रत्यवेक्षण की शक्ति प्रत्यवेक्षण-वशिता है। जो इन पाँच प्रकारों से प्रथम ध्यान में अभ्यस्त हो जाता है वह परिचित प्रथम-ध्यान से उटकर यह विचारता है कि प्रथम-ध्यान सदोष है । क्योंकि इसके वितर्क-विचार स्थूल हैं और इसलिए. इसके अङ्ग दुर्बल और परिक्षीण (= ओडारिक ) है । यह देख कर कि द्वितीय-ध्यान की वृत्ति शान्त है और उसके प्रीति, मुत्र श्रादि शान्ततर और प्रणीततर हैं, उसे द्वितीय-ध्यान के अधिगम के लिए यत्नशील होना चाहिये और प्रथम-ध्यान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। जब स्मृति-सम्प्रजन्य' पूर्वक वह ध्यान के अङ्गों की प्रत्यवेक्षा करता है तो उसे मालूम होता है कि वितः गिनार स्थूल है और प्रीति, मुख और एकाग्रता शान्त हैं । वह स्थूल अङ्गों के प्रहाण तथा शान्त अङ्गों के प्रतिलाभ के लिए उसी पृथ्वी-निमित्त का बारम्बार ध्यान करता है । तब भवांग का उपच्छेद हो चित्त का प्रावर्जन होता है। इससे यह सूचित होता है कि अब द्वितीय- ध्यान सम्पादित होगा। उमी पुथ्वी कमिण में चार या पाँच जवन उत्पन्न होते हैं । केवल अन्तिम जवन रूपावचर दूसरे ध्यान का है। द्वितीय ध्यान के पक्ष में बितर्क और विचार का अनुत्पाद होता है । इसलिए द्वितीय ध्यान वितर्क और विचार से रहित है । वितर्क-सम्प्रयुक्त स्पर्श आदि धर्म द्वितीय ध्यान में रहते है; पर प्रथम ध्यान के स्पर्श अादि से भिन्न प्रकार के होते हैं । द्वितीय ध्यान के केवल तीन अंग हैं—१. प्रीति, २. मुत्र, और ३. एकाग्रत।। द्वितीय-शान 'सम्प्रसादन'२ है । अर्थात् श्रद्धायुक्त होने के कारण तथा वितर्क-विचार के क्षोभ के ट्युपशम के कारण यह चित्त को सुप्रसन्न करता है । सम्प्रसाद इस ध्यान का परिष्कार है। यह ध्यान वितर्क-विचार से अध्यारूढ़ न होने के कारण अग्र और श्रेष्ठ हो ऊपर उठता है अर्थात् माधि की वृद्धि करता है । इसलिए इसे 'एकोदिभाव करते हैं । 1. काय और चित्त की अवस्थाओं की प्रत्यवेक्षा 'सम्प्रजन्य' कहलाती है। २. "प्रीत्यादयः प्रसाद द्वितीयेचतुष्टयम् । तृतीये पत्र तूपेक्षा स्मृतिान सुखं स्थितिः ।। [अभिधर्मकोश EVE1८] | १. "एको देतीति एकोदि । वितविचारे हि मझारूठत्ता अग्गो सेटो हुत्ता उदेतीति मरयो । सेटोपि हि लोके एकोति पुस्चति । वितस्कविचारविरहितो वा एको असहायो हुवा इति पि बबट्ठति । अथवा सम्पयुतधम्मे उदायतीति उदि उट्टयेतीति मल्यो सेदृट्वेम एको छ सो उदि चाति एकोदिः समाधिस्सेत अधिवधर्म, इति इर्म एकोटि