पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६०

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पौर-धर्म दर्शन पहला ध्यान वितर्क-विचार के कारण लुब्ध और समाकुल होता है । इसलिए उसमें यथार्थ भद्धा होती है तथापि वह 'सम्प्रसादन' नहीं कहलाता। सुप्रसन्न न होने से प्रथम ध्यान को समाधि भी अच्छी तरह श्राविर्भूत नहीं होती। इसलिए, उसका एकोदिभाव नहीं होता। किन्तु दूसरे ध्यान में वितर्क और विचार के अभाव से श्रद्धा अवकाश पाकर बलवती होती है और बलवती-श्रद्धा की सहायता से समाधि भी अच्छी तरह श्राविर्भूत होती है। द्वितीय-ध्यान का भी उक्त पाँच प्रकार से अभ्यास करना चाहिये। द्वितीय-ध्यान से उठ कर योगी विचार करता है कि द्वितीय-ध्यान भी सदोर है। क्योंकि इसकी प्रीति स्थूल है और इसलिए इसके अङ्ग दुर्बल हैं। इस प्रीति के बारे में कहा है कि इसने परिग्रह में प्रेम का परित्याग नहीं किया और यह तृष्णा सहगत होती है। क्योंकि इस प्रीति की प्रवृत्ति का श्राकार उद्वेगपूर्ण होता है । यह देख कर कि तृतीय ध्यान की वृत्ति शान्त है, तृतीय-ध्यान के लिए यत्नशील होना चाहिये। जब वह ध्यान के अङ्गों की प्रत्यवेक्षा करता है, तो उसे प्रीति स्थूल और सुख-एकाग्रता शान्त मालूम होते हैं। यह स्थूल अङ्ग के प्रहाण के लिए पृथ्वी-निमित्त का बारम्बार चिन्तन करता है। तब भवाङ्ग का उपच्छेद हो चित्त का आवर्जन होता है। तदनन्तर उसी पृथ्वी-कसिण पालम्भन में चार या पाँच जवन उत्पन्न होते हैं। इनमें केवल अन्तिम चयन रूपावचर तृतीय-ध्यान का है। तृतीय-ध्यान के क्षण में प्रीति का अनुत्पाद होता है । इस ध्यान के दो अंग हैं ---१. सुख और २. एकाग्रता । उपेक्षा, स्मृति और सम्प्रजन्य इसके परिष्कार हैं। प्रीति का अतिक्रमण करने से और वितर्क-विचार के उपशम से तृतीय-ध्यान का लाभी उपेक्षाभाव रखता है, वह समदशी होता है अर्थात् पक्षपात रहित हों देखता है। इसकी सम- दर्शिता विशद, विपुल और स्थिर होती है । इस कारण तृतीय-ध्यान का लाभी उपेक्षक कहलाता है। उपेक्षा दस प्रकार की होती है:-१. पड्गोपेक्षा, २. ब्रह्मविहारोपेक्षा, ३. बोध्यंगो- पेक्षा, ४. वीर्योपेक्षा, ५. संस्कारोपेक्षा, ६. वेदनोपेचा, ७. विपश्यनोपेक्षा, ८. तत्रमध्यत्वोपेक्षा, ध्यानोपेक्षा और १०. पारिशुयुपेक्षा । छः इन्द्रियों के छः इष्ट अनिष्ट विपयों से निष्ट न होना और अपनी शुद्ध-प्रकृति को निम्बल रखना 'षडङ्गोपेना है । सब प्राणियों के प्रति समभाव रखना ब्रह्मविहारोपेक्षा कहलाती है। आलम्बन में चित्र की समप्रवृत्ति से और प्रग्रह-निग्रह-सम्प्रहर्षण के विषय में व्यापार का अमाव होने से सम्प्रयुक्त धर्मों में उदासीन वृत्ति को बोभ्यङ्गोपेक्षा कहते हैं । जो वीर्य लोन और उद्धत भाव से रहित है उसे वीर्यापेक्षा कहते हैं। भावना की समप्रवृत्ति के समय जो उपेक्षामाद होता है, उसे वीर्योपेक्षा कहते हैं। प्रथम-भ्यान आदि से नीवरण आदि का महाण होता है यह निश्चय कर और नीवरणादि धर्मों के स्वभाव की परीक्षा कर संस्कारों के ६. भावेनि बढेतीति इदं एतिषमा एकोदिभावं । [विधिमग्गो पृ० ११५] यहाँ ज्ञान सम्प्रज्ञा- 'सम्प्रजन्य'। स्थिति 'समापि।