पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६३

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पंचम अध्याय धर्म भी परिशुद्ध हो जाते हैं । यद्यपि पहले तीन ध्यानों में भी उपेक्षा विद्यमान है तथापि उनमें वितर्क श्रादि विरोधी धर्मों द्वारा अभिभूत होने से तथा सहायक प्रत्ययों की विकलता से उनकी अपेक्षा अपरिशुद्ध होती है और उसके अपरिशुद्ध होने से सहजात धर्म, स्मृति श्रादि भी अपरिशुद्ध होते हैं । पर चतुर्थ-ध्यान में वितर्क अादि विरोधी धर्मों के उपशम से तथा उपेक्षा वेदना के प्रतिलाभ से उपेक्षा अत्यन्त परिशुद्ध होता है और साथ ही साथ स्मृति श्रादि भी परिशुद्ध होती हैं। ध्यान-पञ्चक के द्वितीय-ध्यान' में केवल वितर्क नहीं होता और विचार, प्रीति, सुन्व, और एकाग्रता यह चार अङ्ग होते हैं; तृतीय-ध्यान में विचार का परित्याग होता है और प्रीति,मुग्व, और एकाग्रता यह तीन अङ्ग होने हैं; अन्तिम दो ध्यान ध्यान-चतुष्क के तृतीय और चतुर्थ हैं। ध्यान-चतुष्क के द्वितीय-ध्यान को ध्यान-पञ्चक में दो ध्यानों में विभक्त करते हैं। मापो-कसिण-मुम्ब पूर्वक बैठकर जल में निमित्त २ः ग्रहण करना चाहिये । नील, पीत, लोहित और अवदात वर्गों में से किमी वर्ण का जल ग्रहण न करना चाहिये । पूर्व इसके कि अाकाश का जल भूमि पर प्राम हो, उसे शुद्ध बन्त्र में ग्रहण कर किसी पात्र में रखना चाहिये। इस जल का या किसी दूसरे शुद्ध जल का व्यवहार करना चाहिये । जल से भरे पात्र को ( विदत्थि चतुरनुल-चर्नुल ) विहार के प्रत्यन्त में किसी ₹के स्थान में रखना चाहिये । भावना करते हा वर्ण और लक्षण की प्रत्ययेना न करनी चाहिये । भावना करते करते क्रम से पूर्वोक्त प्रकार से निभिनद्वय की उत्पत्ति होती है, पर इसका उद्ग्रह-निमित्त चलित प्रतीत होता है। यदि जल में फेन और बुबुद् उठता हो तो कसिण दोष प्रकट हो जाता है । प्रतिभाग-निमित्त स्थिर है । उक्त रीत्या योगी अापो-कसिण का श्रालम्बन कर ध्यानों का उत्पाद करता है। तेत्रो कसिण-तेजो-कमिण की भावना करने की इच्छा रम्मने वाले योगी को अग्नि में निमित्त का ग्रहण करना चाहिये। जो अधिकारी है वह अकृत अग्नि में भी-जैसे दावाग्नि-निमित्त का उत्पाद कर सकता है, पर जो अधिकारी नहीं है उसे सूखी लकड़ी लेकर आग जलाना पड़ता है। चटाई, चमड़े या कपड़े के टुकड़े में एक बालिश्त चार अङ्गुल का छेद कर उसे अपने सामने रख लेना चाहिये, जिसमें नीचे का तृण-काष्ठ और ऊपर की धूपशिखा न दिखाई देकर केवल मध्यवर्ती अग्नि की धनी ज्वाला ही दिखलाई दे। इसी घनी ज्वाला में निमित्त का ग्रहण करना चाहिये । नील, पीत अादि वर्ण तथा उष्णता श्रादि लक्षण की प्रत्यवेक्षा न करनी चाहिये । केवल प्रज्ञप्तिमात्र में चित्त को प्रतिष्ठित कर भावना करनी चाहिये । उक्त प्रकार से भावना करने पर क्रम पूर्वक दोनों निमित्त उत्पन्न होते हैं। उद्ग्रह-निमित्त में अग्निज्वाला खण्ड-खण्ड होकर गिरती हुई मालूम होती है। प्रतिभाग-निमित्त निश्चल १, ध्यान पाक के द्वितीय ध्यान को अभिधर्म कोश में ध्यानान्तर' कहा है; ध्यानमन्तरम् । २२