पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६५

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पंचम अध्याय में भावना करनी चाहिये । उद्ग्रह-निमित्त दीवाल या जमीन पर बने पालोक-मण्डल की तरह होता है । प्रतिभाग-निमित्त बहल और शुभ्र आलोक-पुञ्ज की तरह होता है। परिधिमाकाश-कसिब-जो अधिकारी है वह किसी छिद्र में निमित्त का उत्पाद कर लेता है । सामान्य योगी सुच्छन्न मण्डल में या चमड़े की चटाई में एक बालिश्त चार अङ्गुल का छेद बनाकर उसी छेद में भावना द्वारा निमिच का ग्रहण करता है । उद्ग्रह-निमित्त दीवाल के कोनों के साथ छेद की तरह होता है। उसकी वृद्धि नहीं होती। प्रतिभाग-निमिरा श्राकाश- मण्डल की तरह उपस्थित होता है । उसकी वृद्धि हो सकती है । यश अशुभ-कर्मस्थान कर्मस्थानों का संक्षिप्त विवरण ऊपर दिया गया है । उद्भुमातक श्रादि इन दश कर्मस्थानों का ग्रहण श्राचार्य के पास ही करना चाहिये । कर्मस्थान सभाग है या विसभाग इसकी परीक्षा करनी चाहिये । पुरुष के लिए स्त्री-शरीर विसभाग है और स्त्री के लिए पुरुष-शरीर । इसलिए, अशुभ-कर्मस्थान अमुक जगह पर है, ऐसा जानने पर भी उसको ठीक जाँच करके ही उस स्थान पर जाना चाहिये । जाने के पहले संत्र-स्थविर या अन्य किमी स्थविर-भिक्षु को कहकर ही जाना चाहिय । ऐसे कर्मस्थान प्रायः श्मशान पर ही मिलते हैं, जहां वन्य पशु; भूत-प्रेत और चोरों का भय रहता है। संघ-स्थविर को कहकर जाने से योगावचर-भिन्नु की पूर्ण व्यवस्था की जा सकती है । योगी को ऐसे कर्मस्थान के पाम अकेला जाना चाहिपे । उपस्थितस्मृति से, संवृत-इन्द्रियों से, एकाग्रचित्त से, जिस प्रकार दनिय अभिषेक स्थान पर, या यजमान यशशाला पर, या निर्धन निधि-स्थान की ओर सौमनस्यचित्त से जाता है उसी प्रकार योगी को अशुभ- कर्मस्थान के पास जाना चाहिये। वहीं जाकर अशुभ-निमित्त को सहजभाव से देखना चाहिये । उसको वर्ण, लिंग, संस्थान, दिशा, अवकाश, परिच्छेद, सन्धि विवर अादि निमित्तों को सुग्रहीत करना चाहिये। अशुभ-ध्यान के गुणों का दर्शन करके अशुभ-कर्मस्थान को अमूल्य रत्न के समान देखकर उसे चित्त को उस श्रालम्बन पर एकाग्र करना चाहिये और सोचना चाहिये कि--"मैं इस प्रतिपदा के कारण जरा-मरण से मुक्त होऊँ। चित्त की एकाग्रता के साथ ही वह कामों से विविक्त होता है, अकुशलधों से विविक्त होता है और विवेकज-प्रीति के साथ प्रथम-ध्यान को प्राप्त करता है । इस कर्मस्थान में प्रथम-ध्यान को आगे बढ़ा नहीं जाता क्योंकि यह श्रालम्बन दुर्बल होने से वितर्क के बिना चित्त उसमें स्थिर नहीं रहता। इसी कारण प्रथम-ध्यान के बाद इसी पालम्बन को लेकर द्वितीय ध्यान असम्भत्र है । पश अनुस्मृतियाँ दश कसिण और दश अशुभ-कर्मस्थान के बाद दश अनुस्मृति-कर्मस्थान उद्दिष्ट हैं। पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाली स्मृति ही अनुस्मृति है। प्रवर्तन के योग्य स्थान में ही प्रवृत्त होने के कारण अनुरूप स्मृति को भी अनुस्मृति कहते हैं । दस अनुस्मृतियाँ इस प्रकार है-- इदानुस्मृति-बुद्ध की अनुस्मृति, जो योगी इस अनुस्मृति को प्राप्त करना चाहता है उसे प्रसादयुक्त चित्त से एकान्त में बैठकर "भगवान् अर्हन् सम्यक्-सम्बुद्ध है, विद्याचरण-