पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६६

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बौद-धम्म सम्पमा है, सुगत हैं, लोकविद् हैं, शाता है" इत्यादि प्रकार से भगवान बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करना चाहिये। इस प्रकार बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करते समय योगी का चित्त न राग-पस्थित होता है, न द्वेष-पस्थित होता है, न मोह-पस्थित होता है। तथागत को चित्त का आलम्बन करने से उसका चित्त अजु होता है, नीवरण विष्कम्भित होते हैं, और बुद्ध के गुणों का ही चिन्तन करनेवाले वितर्क और विचार उत्पन्न होते हैं । बुद्धगुणों के वितर्क-विचार से प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से प्रश्रन्धि पैदा होती है, जो काय और चित्त को प्रशांत करती है। प्रशांत भाव से सुख और सुख से समाधि की प्राप्ति होती है । इस प्रकार अनुक्रम से एक क्षण में ध्यान के अङ्ग उत्पन्न होते हैं । बुद्ध-गुणों की गम्भीरता के कारण और नाना प्रकार के गुणों की स्मृति होने के कारण यह चित्त श्रर्पणा को प्राप्त नहीं होता, केवल उपचार-समाधि ही प्राप्त होती है। यह समाधि बुद्धगुणों के अनुस्मरण से उत्पन्न है, इसलिए इसे बुद्धानुस्मृति कहते हैं । इस बुद्धानुस्मृति से अनुयुक्त भितु शास्ता में सगौरव होता है, प्रसन्न होता है, श्रद्धा, स्मृति, प्रा और पुण्य-वैपुल्य को प्राप्त करता है, भव-भैरव को सहन करता है । बुद्धानुस्मृति के कारण उसका शरीर भी चैत्यगृह के समान पूजाह होता है, उसका चित्त बुद्धभूमि में प्रति- ठित होता है। धर्मानुस्मृति-धर्मानुस्मृति को प्राप्त करने के इच्छुक योगी को विचार करना चाहिये कि भगवान् से धर्म स्वाख्यात है । यह धर्म संदृष्टिक, अकालिक, पहिपस्सिक, श्रौपनेथ्यिक और विशों से प्रत्यक्ष जानने योग्य है। इस प्रकार धर्म की स्मृति करने से वह धर्म में सगौरव होता है । अनुत्तर धर्म के अधिगम में उसका चित्त प्रवृत्त होता है। इसमें भी अर्पणा प्राप्त नहीं होती । केवल उपचार-समाधि प्राप्त होती है । सहानुस्मृति-सङ्गानुस्मृति को प्राप्त करने के इच्छुक योगी को विचार करना चाहिये कि भगवान् का श्रावक सङ्घ सुप्रतिपन्न है, ऋजुप्रतिपन्न, आर्यधर्मप्रतिपन्न है, सम्यक्त्व- प्रतिपन है । भगवान् का श्रावक-सङ्घ श्रोतापन्न श्रादि श्रष्ट पुरुषों का बना हुश्रा है। यह दक्षि- णेय है, अञ्जलिकरणीय है, और लोक के लिए अनुत्तर पुण्य-क्षेत्र है। इस प्रकार की सानु- स्मृति से योगी संघ में सगौरव होता है, अनुत्तर-मार्ग की प्राप्ति में उसका चित्त दृढ़ होता है । यहाँ पर भी केवल उपचार-समाधि होती है। शीलासुस्पति-शीलानुस्मृति में योगी एकान्त स्थान में अपने शीलों पर विचार करता है कि "अहो ! मेरे शील अखण्ड, अच्छिद्र, अशबल, अकिल्मिप, स्वतन्त्र, विशों से प्रशस्त, अपरामुष्ट और समाधि-संवर्तनिक हैं। यदि योगी गृहस्थ हो तो गृहस्थ-शील का, प्रत्रजित हो तो प्रबजित-शील का, स्मरण करना चाहिये । इस अनुस्मृति से योगी शिक्षा में सगौरव होता है । अणुमात्र दोष में भी भय का दर्शन करता है, और अनुत्तर शील को प्राप्त करता है। इस अनुस्मृति में भी अर्पणा नहीं होती । उपचार-ध्यान मात्र होता है । स्थागानुस्मृति-त्यागानुस्मृति को प्राप्त करने के इच्छुक योगी को चाहिये कि वह इस स्मृति को करने के पहले कुछ न कुछ दान दे। ऐसा निश्चय भी करे कि बिना कुछ