पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६८

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बौद्ध-धर्म-दर्शन और नातिमन्द गति से, अविक्षिप्तचिरा से चिन्तन करता है । इस प्रकार इन बत्तीस कर्मरथानों में से एक एक कर्म-स्थान में वह अर्पणासमाधि को प्राप्त करता है। कायगता स्मृति के पूर्व की सात अनुस्मृतियों में अर्पणा प्राप्त नहीं होती, क्योंकि यहां पालम्वन गम्भीर है और अनेक है। यहां पर योगी सतत अभ्यास से एक एक कोट्ठास को लेकर प्रथम-ध्यान को प्राप्त करता है इस कायगत-स्मृति में अनुयुक्त योगी अरति-रति-सह होता है। उत्पनरति और परति को अभिभूत करता है; भवभैरव को सहन करता है, शीतोष्ण को सहन करता है, चार ध्यानों को प्राप्त करता है और षडभिज्ञ भी होता है। पानापान-स्मृति-स्मृतिपूर्वक आश्वास-प्रश्वास की क्रिया द्वारा जो समाधि प्राप्त होती है उसे पानापान-स्मृति कहते हैं। यह शान्त, प्रणीत, अव्यवकीर्ण, ओजस्वी, और सुख-विहार है। इसका विशेष वर्णन नागे किया जा रहा है । उपत्रमानुस्मृति-- इस अनुस्मृति में योगी निर्वाण का चिन्तन करता है। वह एकान्त में समाहित चित्त से सोचता है कि जितने संस्कृत या असंकृत धर्म हैं, उन धर्मों में श्रम- धर्म निर्वाण है । वह मद का निर्मदन है, पिपिासा का विनयन है, श्रालय का समुद्घात है, वर्श का उपच्छेद हैं, तृष्णा का क्षय है, विराग है, निरोध है । इस प्रकार सर्वदुःश्लोपशम- स्वरूप निर्वाण का चिन्तन ही उपशमानुस्मृति है। भगवान् ने इसी के बारे में कहा है कि यह निर्वाण ही सत्य है, पार है, सुदुर्दर्श है, अजर, ध्रुव, निष्प्रपञ्च, अमृत, शिव, क्षेम, अन्यापाद्य और विशुद्ध है । निर्वाण ही दीप है, निर्वाण ही त्राण है । इस उपशमानुस्मृति से अनुयुक्त योगी सुख से सोता है, सुख से प्रतिबुद्ध होता है । इसके इन्द्रिय और मन शान्त होते हैं। वह प्रासादिक होता है और अनुक्रम से निर्वाण को प्राप्त करता है। उपशम गुणों की गम्भीरता के कारण और अनेक गुणों का अनुस्मरण करने के हेतु से इस अनुस्मृति में अर्पणाध्यान की प्राप्ति नहीं होती। केवल उपचार-ध्यान की ही प्राप्ति होती है। पानापान-स्मृति चित्त के एकाग्र करने के लिये पातअल-दर्शन में कई उपाय निर्दिष्ट किये गये। योग के ये विविध साधन 'परिकर्म' कहलाते हैं । बौद्ध साहित्य में इन्हें कर्म-स्थान' कहा है। ये विविध प्रकार के चित्त-संस्कार हैं, जिनसे चित्त एकाग्र होता है । योग शास्त्र का रेचन-पूर्वक कुभक इसी प्रकार का एक साधन है। इसका उल्लेख समाधि- पाद के चौंतीसवें स्त्र में किया गया है.---'प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य' । योग शासोक्त प्रयत्न विशेष द्वारा भीतर की वायु को बाहर निकालना ही प्रच्छर्दन या रेचन कहलाता है । ..'क' का अर्थ योगानुयोग, स्थान का अर्थ है निष्पत्ति-हेतु । इसलिये 'कम-स्थान' उसे कहते है जिसके द्वारा योग-भावना की निष्पति होती है। कर्म-स्थान पाकील है।